________________ 316 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 7/1 विभिन्नार्थगोचरा विभिन्नशब्दत्वाद्वाजिवारणशब्दवदिति। ___14. एवमित्थं विवक्षितक्रियापरिणामप्रकारेण भूतं परिणतमर्थं योभिप्रेति स एवम्भूतो नयः। ___15. समभिरूढो हि शकनक्रियायां सत्यामसत्यां च देवराजार्थस्य शक्रव्यपदेशमभिप्रैति, पशोर्गमनक्रियायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत्, तथा रूढेः सद्भावात्, अयं तु शकनक्रियापरिणतिक्षणे एव शक्रमभिप्रेति न पूजनाभिषेचनक्षणे, अतिप्रसङ्गात्। 16. न चैवंभूतनयाभिप्रायेण कश्चिदक्रियाशब्दोस्ति, 'गौरश्वः' इति जातिशब्दाभिमतानामपि क्रियाशब्दत्वात्, 'गच्छतीति गौराशुगाम्यश्वः' अपितु शकनात् शकः जो समर्थ है वह शक है एवं इन्द्रनात् इन्द्रः जो ऐश्वर्य युक्त है वह इन्द्र है ऐसा प्रत्येक पद का भिन्न ही अर्थ है इस तरह समभिरूढनय का अभिप्राय है। एवंभूतनय का लक्षण एवं इस प्रकार विवक्षित किया परिणाम के प्रकार से भूतं परिणत हुए अर्थ को जो इष्ट करे अर्थात् क्रिया का आश्रय लेकर भेद स्थापित करे वह एवंभूतनय है। 15. समभिरूढ नय देवराज [इन्द्र] नाम के पदार्थ में शकन क्रिया होने पर तथा नहीं होने पर भी उक्त देवराज की शक संज्ञा स्वीकारता है जैसे कि पशु विशेष में गमन क्रिया हो या न हो तो भी उसमें गो संज्ञा होती है वैसी रूढि होने के कारण, किन्तु यह एवंभूतनय शकन क्रिया से परिणत क्षण में ही शक्र नाम धरता है, जिस समय उक्त देवराज पूजन या अभिषेक क्रिया में परिणत है उस समय शक नाम नहीं धरता है, अतिप्रसंग होने से। 16. इस एवंभूतनय की अपेक्षा देखा जाय तो कोई शब्द क्रिया रहित या बिना क्रिया का नहीं है, गौः अश्वः इत्यादि जाति वाचक माने गये शब्द भी इस नय की दृष्टि में क्रिया शब्द हैं, जैसे गच्छति इति गौः, आशुगामी अश्वः, जो चलती है वह गो है, जो शीघ्र गमन करे वह अश्व