________________ 314 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 7/1 ऽस्मदेकवच्च"27 इत्यभिधानात्। तदप्यपेशलम: 'अहं पचामि त्वं पचसि' इत्यत्राप्येकार्थत्वप्रसङ्गात्। 11. तथा, 'सन्तिष्ठते प्रतिष्ठते' इत्यत्रोपग्रहभेदेप्यर्थाभेदं प्रतिपद्यन्ते उपसर्गस्य धात्वर्थमात्रोद्योतकत्वात्। तदप्यचारु; 'सन्तिष्ठते प्रतिष्ठते' इत्यत्रापि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसङ्गात्। ततः कालादिभेदाद्भिन्न एवार्थ: शब्दस्य। तथाहि-विवादापन्नो विभिन्नकालादिशब्दो विभिन्नार्थप्रतिपादको सकते क्योंकि उससे तो तुम्हारे पिता गये। ऐसा एहि इत्यादि संस्कृत पदों का अर्थ व्याकरणाचार्य करते हैं किन्तु व्याकरण के सर्वसमान्य नियमानुसार इन पदों का अर्थ-आओ मैं मानता हूँ, रथ से जाओगे किंतु नहीं जा सकोगे क्योंकि उससे तुम्हारे पिता गए- इस प्रकार होता है] यहाँ साधन भेद मध्यमपुरुष उत्तमपुरुष आदि का भेद होने पर भी अभेद है क्योंकि हंसी मजाक में मध्यम पुरुष और उत्तम पुरुष में एकत्व मानकर प्रयोग करना इष्ट है, ऐसा वे लोग कहते हैं किन्तु यह ठीक नहीं, इस तरह तो 'अहं पचामि, त्वं पचसि' आदि में भी एकार्थपना स्वीकार करना होगा। 11. तथा संतिष्ठते प्रतिष्ठते इन पदों में उपसर्ग का भेद होने पर भी अर्थ का अभेद मानते हैं क्योंकि उपसर्ग धातुओं के अर्थ का मात्र द्योतक है, इस प्रकार का कथन भी असत् है, संतिष्ठते प्रतिष्ठते इन शब्दों में जो स्थिति और गति क्रिया है इनमें भी अभेद का प्रसंग होगा। इसलिये निश्चित होता है कि काल, कारक आदि के भिन्न होने पर शब्द का भिन्न ही अर्थ होता है। विवाद में स्थित विभिन्न कालादि शब्द विभिन्न अर्थ का प्रतिपादक है क्योंकि वह विभिन्न कालादि शब्दत्व रूप है, जैसे कि अन्य अन्य विभिन्न शब्द भिन्न भिन्न अर्थों के प्रतिपादक हुआ करते हैं, मतलब यह है कि जैसे रावण और शंख चक्रवर्ती शब्द क्रमशः अतीत और आगामीकाल में स्थित भिन्न-भिन्न दो पदार्थों के वाचक हैं 27. जैनेन्द्रव्याकरण 1/2/153