________________ 306 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 7/1 विषयीकरणात्। 'जीवगुणः सुखम्' इत्यत्र हि जीवस्याप्राधान्यं विशेषणत्वात्, सुखस्य तु प्राधान्यं विशेष(ष्य)त्वात्। 'सुखी जीवः' इत्यादौ तु जीवस्य प्राधान्यं न सुखादेविपर्ययात्। न चास्यैवं प्रमाणात्मकत्वानुषङ्गः; धर्मधर्मिणोः प्राधान्येनात्र ज्ञप्तेरसम्भवात्। तयोरन्यतर एव हि नैगमनयेन प्रधानतयानुभूयते। प्राधान्येन द्रव्यपर्यायद्वयात्मक चार्थमनुभवद्विज्ञानं प्रमाणं प्रतिपत्तव्यं नान्यदिति। सर्वथानयोरर्थान्तरत्वाभिसन्धिस्तु नैगमाभासः। धर्मधर्मिणोः सर्वथार्थान्तरत्वे धर्मिणि धर्माणां वृत्तिविरोधस्य प्रतिपादितत्वादिति। 3. स्वजात्यविरोधेनैकध्यमुपनीयार्थानाक्रान्तभेदानं समस्तग्रहणात्संग्रहः। स च परोऽपरश्च। तत्र परः सकलभावानां सदात्मनैकत्वमभिप्रेति। 'सर्वमेक सदविशेषात्' इत्युक्ते हि 'सत्' इतिवाग्विज्ञानानुवृत्तिलिङ्गानुमितसत्तात्मकत्वेनैकत्वमशेषार्थानां संगृह्यते। निराकृताऽशेषविशेषस्तु सत्ताऽद्वैताभिप्रायस्तदाभासो कर लेने से इस नय को प्रमाणरूप होने का प्रसंग नहीं होगा, क्योंकि इस नय में धर्म और धर्मी को प्रधान भाव से जानने की शक्ति नहीं है। धर्म धर्मी में से कोई एक ही नैगम नय द्वारा प्रधानता से ज्ञात होता है। इससे विपरीत प्रमाण द्वारा तो धर्म धर्मी द्रव्य पर्यायात्मक वस्तुत्व प्रधानता से ज्ञात होता है, अर्थात् धर्म धर्मी दोनों को एक साथ जानने वाला विज्ञान ही प्रमाण है। संशयरूप जानने वाला प्रमाण नहीं ऐसा समझना चाहिए। नैगमाभास धर्म और धर्मी में सर्वथा भेद है ऐसा अभिप्राय नैगमाभास कहलाता है। धर्म और धर्मी को यदि सर्वथा पृथक् माना जायगा तो धर्मी में धर्मों का रहना विरुद्ध पड़ता है, इसका पहले कथन कर आये हैं। संग्रह नय का लक्षण स्वजाति जो सत् रूप है उसके अविरोध से इस प्रकार को प्राप्त कर, जिसमें विशेष अन्तर्भूत है, उनको पूर्णरूप से ग्रहण करे वह संग्रह नय कहलाता है। उसके दो भेद हैं- परसंग्रह नय और अपरसंग्रह नय।