________________ 7/1 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 305 भूतविकल्पाच्चतुर्विधः। 2. तत्रानिष्पन्नार्थसङ्कल्पमात्रग्राही नैगमः। निगमो हि सङ्कल्पः, तत्र भवस्तत्प्रयोजनो वा नैगमः। यथा कश्चित्पुरुषो गृहीतकुठारो गच्छन् 'किमर्थं भवान्गच्छति' इति पृष्टः सन्नाह-'प्रस्थमानेतुम्' इति। एधोदकाद्याहरणे वा व्याप्रियमाणः 'किं करोति भवान्' इति पृष्टः प्राह-'ओदनं पचामि' इति। न चासौ प्रस्थपर्याय ओदनपर्यायो वा निष्पन्नस्तन्निष्पत्तये सङ्कल्पमात्रे प्रस्थादिव्यवहारात्। यद्वा नैकङ्गमो नैगमो धर्मधर्मिणोर्गुणप्रधानभावेन नैगम नय का लक्षण जो पदार्थ अभी बना नहीं है उसके संकल्प मात्र को जो ग्रहण करता है वह नैगम नय है। निगम कहते हैं संकल्प को, उसमें जो हो वह नैगम अथवा निगम अर्थात् संकल्प जिसका प्रयोजन है वह नैगम कहलाता है। जैसे कोई पुरुष हाथ में कुठार लेकर जा रहा है उसको पूछा कि आप कहाँ जा रहे हैं तब वह कहता है प्रस्थ [करीब एक किलो धान्य जिससे मापा जाय ऐसा काष्ठ का बर्तन विशेष] लाने को जा रहा हूँ। अथवा लकड़ी, जल आदि को एकत्रित करने वाले पुरुष को पूछा आप क्या कर रहे हो? तो वह कहता है "भात पका रहा हूँ।" किन्तु इस प्रकार का कथन करते समय प्रस्थ पर्याय निष्पन्न नहीं है, केवल उसके निष्पन्न करने का संकल्प है। उसमें ही प्रस्थादि का व्यवहार किया गया है। अथवा नैगम शब्द का दूसरा अर्थ भी है वह इस प्रकार-"न एक गमः नैगमः" जो एक को ही ग्रहण न करे अर्थात् धर्म और धर्मी को गौण और मुख्य भाव से विषय करे वह नैगम नय है। जैसे- जीवन का गुण सुख है अथवा सुख जीव का गुण है, यहाँ जीव अप्रधान है, विशेषता होने से, और विशेष्य होने से सुख प्रधान है। सुखी जीव, इत्यादि में तो जीव प्रधान है सुखादि प्रधान नहीं, क्योंकि यहाँ सुखादि विशेषरूप है। धर्म और धर्मी को गौण और प्रधान भाव से एक साथ विषय