________________ 7/1 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 307 दृष्टेष्टबाधनात्। तथाऽपरः संग्रहो द्रव्यत्वेनाशेषद्रव्याणामेकत्वमभिप्रेति। 'द्रव्यम्' इत्युक्ते ह्यतीतानागतवर्तमानकालवर्त्तिविवक्षिताविवक्षितपर्यायद्रवणशीलानां जीवाजीवतद्भेदप्रभेदानामेकत्वेन संग्रहः। तथा 'घटः' इत्युक्ते निखिलघटव्यक्तीनां घटत्वेनैकत्वसंग्रहः। परसंग्रह नय सकल पदार्थों की सत् सामान्य की अपेक्षा एकरूप इष्ट करने वाला परसंग्रह नय है। जैसे किसी ने "सत्" एक रूप है सत्पने की समानता होने से" ऐसा कहा। इसमें “सत्" यह पद सत् शब्द, सत् का विज्ञान एव सत् का अनुवृत्त प्रत्यय अर्थात् इदं सत् यह सत् है यह भी सत् है इन लिंगों से संपूर्ण पदार्थों का सत्तात्मक एकपना ग्रहण होता है अर्थात् सत् कहने से सत् शब्द, सत् का ज्ञान एवं सत् पदार्थ इन सबका संग्रह हो जाता है अथवा सत् ऐसा कहने पर सत् इस प्रकार के वचन और विज्ञान की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित सत्ता के आधारभूत सब पदार्थों का सामान्यरूप से संग्रह करना संग्रह नय का विषय है। जो विशेष का निराकरण करता है वह पर संग्रहाभास है, क्योंकि सर्वथा अद्वैत या अभेद मानना प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रमाण से बाधित है। अपरसंग्रह नय द्रव्य है ऐसा कहने पर द्रव्यपने की अपेक्षा संपूर्ण द्रव्यों में एकत्व स्थापित करना अपर संग्रह नय कहलाता है क्योंकि द्रव्य कहने पर अतीत अनागत एवं वर्तमान कालवर्ती विवक्षित तथा अविवक्षित पर्यायों से द्रवण (परिवर्तन) स्वभाव वाले जीव अजीव एवं उनके भेद अभेदों का एक रूप से संग्रह होता है, तथा घट है, ऐसा कहने पर संपूर्ण घट व्यक्तियों को घटपने से एकत्व होने के कारण संग्रह हो जाता है। संग्रहाभास सामान्य और विशेषों को सर्वथा पृथक् मानने का अभिप्राय [योग] अपर संग्रहाभास है एवं उन सामान्य विशेषों को सर्वथा अपृथक् मानने का अभिप्राय [मीमांसक] संग्रहाभास है, क्योंकि सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न रूप सामान्य विशेषों की प्रतीति नहीं होती।