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________________ 286 प्रमेयकमलमार्तण्डसार: 6/70-71 एतच्च फलपरीक्षायां प्रपञ्चितमिति पुनर्नेह प्रपञ्च्यते। तस्माद्वास्तवो भेदः ॥700 प्रमाणफलयोस्तव्यवहारान्यथानुपपत्तेरिति प्रेक्षादक्षैः प्रतिपत्तव्यम्। अस्तु तर्हि सर्वथा तयोर्भेद इत्याशङ्कापनोदार्थमाहभेदे त्वात्मान्तरवत्तदनुपपत्तिः(त्तेः) ॥1॥ तस्माद् वास्तवो भेदः॥70॥ सूत्रार्थ- व्यावृत्ति या कल्पना मात्र से प्रमाण और फल में भेद है ऐसा कहना सिद्ध नहीं होता, अतः इनमें जो भेद है वह वास्तविक है काल्पनिक नहीं। ऐसा स्वीकार करना चाहिए। यदि इस तरह न माने तो प्रमाण और फल में जो भेद व्यवहार देखा जाता है कि यह प्रमाण है और यह उसका फल है, इत्यादि व्यवहार बनता नहीं, इस प्रकार प्रेक्षावान् पुरुषों को प्रमाण एवं फल के विषय को समझना चाहिए। यहाँ पर कोई कहे कि प्रमाण और फल में आप जैन वास्तविक भेद स्वीकार करते हैं, सो सर्वथा ही भेद मानना इष्ट है क्या? भेदे त्वात्मान्तरवत् तदनुपपत्तेः ॥71॥ सूत्रार्थ- उपयुक्त शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि प्रमाण और फल में भेद है किन्तु इसका मतलब यह नहीं करना कि सर्वथा भेद है, सर्वथा भेद और वास्तविक भेद इन शब्दों के अन्तर है, सर्वथा भेद का अर्थ तो भिन्न पृथक् वस्तु रूप होता है और वास्तव भेद का अर्थ काल्पनिक भेद नहीं है लक्षण भेद आदि से भेद है- ऐसा होता है। यदि प्रमाण और फल में सर्वथा भेद माने तो अन्य आत्मा का फल जैसे हमारे से भिन्न है वैसे हमारा स्वयं का फल भी हमारे से भिन्न ठहरेगा, फिर यह प्रमाण हमारा है इसका फल यह है इत्यादि व्यपदेश नहीं होगा क्योंकि वह तो हमारे आत्मा से एवं प्रमाण से सर्वथा भिन्न
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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