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प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार
समवायेऽतिप्रसङ्गः ॥ 72 इत्यप्युक्तं तत्रैव।
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समवायेऽतिप्रसंगः 1172॥
सूत्रार्थ - समवाय सम्बन्ध के मानने पर अतिप्रसङ्ग आता है। यहाँ कोई कहे कि प्रमाण से उसका फल है तो सर्वथा पृथक्, किन्तु इन दोनों का समवाय हो जाने से यह इस प्रमाण का फल है ऐसा व्यवहार बन जाता है? यह बात असत् है, समवाय जब स्वयं पृथक् है तो इस प्रमाण में इस फल को समवेत करना है, अन्य प्रमाण में या आकाशादि में नहीं, इत्यादि रूप विवेक समवाय द्वारा होना अशक्य है भिन्न समवाय तो हर किसी प्रमाण के साथ हर किसी प्रमाण के फल को समवेत कर सकता है, इस तरह का अतिप्रसंग होने के कारण प्रमाण और फल में सर्वथा भेद नहीं मानना चाहिये। समवाय किसी गुण गुणी आदि का सम्बन्ध नहीं कराता, कार्य कारण का सम्बन्ध नहीं कराता इत्यादि, इस विषय में समवाय विचार नामा प्रकरण में कह आये हैं। यहाँ अधिक नहीं कहते। इस प्रकार, प्रमाणाभास, संख्याभास, विषयाभास, और फलाभास इन चारों का वर्णन पूर्ण हुआ।
।। तदाभास प्रकरण समाप्त ।।