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________________ 6/68-69 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 285 व्यावृत्त्यापि न तत्कल्पना फलान्तराव्यावृत्त्याऽफलत्वप्रसङ्गात् ॥68॥ प्रमाणान्तराद्व्यावृत्तौ वाऽप्रमाणत्वस्येति ॥69॥ व्यावृत्त्यापि न तत् कल्पना फलान्तराद् व्यावृत्याऽफलत्वप्रसङ्गात् ॥68॥ अर्थ- पूर्वोक्त प्रश्न का उत्तर देते हैं कि व्यावृत्ति-अफल की व्यावृत्ति फल है इस प्रकार की व्यावृत्ति से भी प्रमाण के फल की व्यवस्था नहीं होती, क्योंकि जैसे विवक्षित किसी प्रमाण का फल अफल से व्यावृत है वैसे अन्य फल से भी व्यावृत्त होगा, और जब उसको फलान्तर से व्यावृत्ति करने के लिये बैठेंगे तब वह अफलरूप ही सिद्ध होगा? यहाँ समझने योग्य यह है कि बौद्धमत में शब्द का अर्थ अन्यापोह किया है जैसे गो शब्द है यह गो अर्थ को नहीं कहता किंतु अगो की व्यावृत्ति- अगो का अभाव है- ऐसा कहता है, इस विषय पर अपोहवाद नामा प्रकरण में बहुत कुछ कह आये हैं और इस व्यावृत्ति या अन्यापोह मत का खण्डन कर आये हैं, यहाँ पर इतना समझना कि फल शब्द का अर्थ अफल व्यावृत्ति है। ऐसा करते हैं तो उसका घूम फिरकर यह अर्थ निकलता है कि फल विशेष से व्यावृत्त होना, अतः ऐसा अर्थ करना गलत है। प्रमाणान्तरात् व्यावृत्तौवाऽप्रमाणत्वस्येति ॥69॥ अर्थ- तथा शब्द का अर्थ अन्य व्यावृत्तिरूप होने से बौद्ध फल शब्द का अर्थ अफल व्यावृत्ति [अफल नहीं होना] करते हैं तो जब अफल शब्द का अर्थ करना हो तो क्या करेंगे? अफल की व्यावृत्ति ही तो करेंगे? जैसे कि प्रमाण की व्यावृत्ति अप्रमाण है- ऐसा अर्थ करते हैं? किन्तु ऐसा अर्थ करना अयुक्त है। प्रमाण से प्रमाण का फल सर्वथा अभिन्न या सर्वथा भिन्न नहीं होता इत्यादि रूप से अभी चौथे परिच्छेद में विस्तारपूर्वक कह आये हैं, यहाँ पुनः नहीं कहते।
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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