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प्रमेयकमलमार्तण्डसारः स्तत्त्वतोऽप्रतीयमानस्तावत्कालं मुख्यतस्तदाभासो भवतीति।
अथेदानी विरुद्धहेत्वाभासस्य विपरीतस्येत्यादिना स्वरूपं दर्शयतिविपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धः अपरिणामी शब्दः
कृतकत्वात् ॥29॥ स्वरूप से असिद्ध नहीं रहता, परवादी की अपेक्षा से ही इसे असिद्ध हेत्वाभास कहा है।
सारांश यह है कि जो वस्तु परवादी को मालूम नहीं है, अथवा जिस पदार्थ के विषय में किसी को जानकारी नहीं है तो उतने मात्र से वह वस्तु असत् है ऐसा नहीं माना जाता, रत्न अमृतादि पदार्थ किसी को अज्ञात है जब तक वे उसे प्रतीत नहीं होते तब तक क्या वे रत्नाभास आदि हो जाते हैं? अर्थात् नहीं होते, उसी प्रकार यह अन्यतर असिद्ध हेत्वाभास है, वादी प्रतिवादी आपस में एक दूसरे को अपना मत समझाते हैं तब तक उसके लिये असिद्ध रहता किन्तु वह स्वरूप से असिद्ध नहीं रहता। यहाँ तक यह बात निश्चित हुई कि वादी प्रतिवादियों में से किसी एक को जो हेतु असिद्ध होता है वह अन्यतर प्रसिद्ध हेत्वाभास है।
इस प्रकार असिद्ध हेत्वाभास के दो ही भेद होते हैं, नैयायिकादि के माने गये हेत्वाभास सभी पृथक वास्तविक नहीं है क्योंकि पृथक लक्षण वाले नहीं होने से इन्हीं दो हेत्वाभासों में अंतर्लीन है ऐसा सिद्ध हुआ। विरुद्ध हेत्वाभास
अब इस समय विरुद्ध हेत्वाभास का कथन करते हैंविपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धः अपरिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥29॥
सूत्रार्थ- विपरीत अर्थात् साध्य से विपरीत जो विपक्ष है उसमें जिस हेतु का अविनाभाव निश्चित है वह हेतु हेत्वाभास कहलाता है, जैसे किसी ने कहा कि शब्द अपरिणामी है क्योंकि वह कृतक है, सो ऐसा कहना गलत है इस अनुमान का कृतकत्व हेतु साध्य जो अपरिणामी है उसमें न रहकर इससे विपरीत जो परिणामित्व है उसमें रहता है।