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प्रमेयकमलमार्तण्डसारः वदुभयोरसिद्धः। अथ प्रमाणं प्रतिपादयेत् तर्हि प्रमाणस्यापक्षपातित्वादुभयोरप्यसौ सिद्धः। अन्यथा साध्यमप्यन्तरासिद्ध न कदाचित्सिद्धयेदिति व्यर्थः प्रमाणोपन्यासः स्यात्; इत्यप्यसमीचीनमः यतो वादिना प्रतिवादिना वा सभ्यसमक्षं स्वोपन्यस्तो हेतुः प्रमाणतो यावन्न परं प्रति साध्यते तावत्तं प्रत्यस्य प्रसिद्धेरभावात्कथं नान्यतरासिद्धता?
29. नन्वेवमप्यस्यासिद्धत्वं गौणमेव स्यादिति चेत्। एवमेतत्, प्रमाणतो हि सिद्धेरभावादसिद्धोसौ न तु स्वरूपतः। न खलु रत्नादिपदार्थ
होगा अतः प्रमाण सिद्ध वह हेतु सिद्ध ही कहलायेगा। अपने हेतु को प्रमाण द्वारा सिद्ध करके दिखाने पर भी उसे असिद्ध माना जाय तो साध्य कभी भी सिद्ध नहीं होगा क्योंकि वह भी दोनों में से एक को असिद्ध रहता है, और इस तरह साध्य किसी प्रकार भी यदि सिद्ध नहीं होगा तो उसके लिए प्रमाण को उपस्थित करना व्यर्थ ही है। अभिप्राय यही हुआ कि वादी प्रतिवादी दोनों को असिद्ध ऐसा ही असिद्ध हेत्वाभास होता है; एक को असिद्ध और एक को सिद्ध ऐसा नहीं होता।
समाधान- यह कथन असमीचीन है- वाद करने में उद्युक्त वादी प्रतिवादी जब तक सभासदों के समक्ष अपने हेतु को प्रमाण से सिद्ध नहीं करते तब तक वह पर के लिये अप्रसिद्ध ही रहता है अतः हेतु अन्यतर असिद्ध कैसे नहीं हुआ? अवश्य हुआ। अर्थात् सभा में वादी अपना मत स्थापित करता है, अनुमान द्वारा स्वमत सिद्ध करता है उस समय प्रतिवादी को उसका अनुमान असिद्ध ही रहता है जब वह अपने अनुमानगत हेतु को उदाहरण आदि से सिद्ध करता है [प्रमाण से सिद्ध करता है] तभी उसको परवादी मानता है। अतः अन्यतर असिद्ध हेतु किस प्रकार नहीं होता? अर्थात् होता ही है।
29. शंका- इस तरह से हेतु को अन्यतर असिद्ध बताया जाय तो इसकी यह असिद्धता गौण कहलायेगी।
समाधान- ठीक तो है यह हेतु तब तक ही असिद्ध रहता है जब तक कि प्रमाण से उसे सिद्ध करके नहीं बताया जाता है, यह हेतु