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230 प्रमेयकमलमार्तण्डसार:
6/8-9 अतस्मिंस्तदिति ज्ञानं स्मरणाभासं जिनदत्ते स देवदत्तो यथेति ॥8॥
5. तथैकत्वादिनिबन्धनं तदेवेदमित्यादि प्रत्यभिज्ञानमित्युक्तम्। तद्विपरीतं तु
सदृशे तदेवेदं तस्मिन्नेव तेन सदृशं यमलकवदित्यादि
प्रत्यभिज्ञानाभासम् ॥१॥ स्मृत्याभास
अतस्मिंस्तदिति ज्ञानं स्मरणाभासं जिनदत्ते स देवदत्तो यथेति॥8॥
सूत्रार्थ- जो वह नहीं है उसमें "वह" इस प्रकार की स्मृति होना स्मरणाभास है जिसे जिनदत्त का तो अनुभव किया था और स्मरण करता है “वह देवदत्त" इस प्रकार का प्रतिभास होना स्मृत्याभास है।
5. एक वस्तु में जो एकपना रहता है उसके निमित्त से होने वाला- उसका ग्राहक ज्ञान प्रत्यभिज्ञान होता है, तथा और भी प्रत्यभिज्ञान के भेद पहले बताये थे उनसे विपरीत जो ज्ञान हो वे प्रत्यभिज्ञानाभास है अर्थात् सदृश में एकत्व का और एकत्व में सदृश का ज्ञान होना प्रत्यभिज्ञानाभास है। आगे इसी को कहते हैंप्रत्यभिज्ञानाभास
सदृशे तदेवेदं तस्मिन्नेव तेन सदृशं यमलकवदित्यादि प्रत्यभिज्ञानाभासम् ॥१॥
सूत्रार्थ- सदृश वस्तु में कहना कि यह वही पुरुष [जिसे मैंने कल देखा था] है, और जो वही एक वस्तु है उसको कहना या उसमें प्रतीति होना कि यह उसके सदृश है तो वह क्रमशः एकत्व प्रत्यभिज्ञानाभास और सदृश प्रत्यभिज्ञानाभास है।
जैसे एक व्यक्ति के दो युगलिया[जुड़वा] पुत्र थे, मान लो एक का नाम रमेश और एक का नाम सुरेश था दोनों भाई बिलकुल समान थे, उन दोनों को पहले किसी ने देखा था किन्तु समानता होने के कारण कभी रमेश को देखकर उसमें यह वही सुरेश है जिसे पहले देखा था ऐसी प्रतीति करता है, तथा कभी वही एक सुरेश को देखकर भी कहता