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________________ 6/7 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 229 बौद्धस्याकस्मिकधूमदर्शनाद्वह्निविज्ञानवत् इत्यप्युक्तं प्रपञ्चतः प्रत्यक्षपरिच्छेदे। वैशद्यपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणज्ञानवत् ॥7॥ 4. न हि करणज्ञानेऽव्यवधानेन प्रतिभासलक्षणं वैशद्यमसिद्ध स्वार्थयोः प्रतीत्यन्तरनिरपेक्षतया तत्र प्रतिभासनादित्युक्तं तत्रैव। तथानुभूतेर्थे तदित्याकारा स्मृतिरित्युक्तम्। अननुभूतेवहाँ अग्नि अवश्य होती है, ऐसे व्याप्तिज्ञान के अभाव में यदि वह पुरुष अचानक ही धूम को देखे और यहाँ पर अग्नि है ऐसा समझे तो उसका वह ज्ञान प्रमाण नहीं कहलायेगा अपितु प्रमाणाभास ही कहलायेगा, क्योंकि उसे धूम और अग्नि के सम्बन्ध का निश्चय नहीं है, न वह धूम और वाष्प के भेद को जानता है। इसी तरह बौद्ध का माना हुआ निर्विकल्प प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है किन्तु प्रत्यक्षाभास है, क्योंकि जैसे अकस्मात् होने वाले उस अग्नि ज्ञान को अनिश्चयात्मक होने से प्रमाणाभास माना जाता है वैसे ही निर्विकल्प दर्शन अनिश्चयात्मक होने से प्रत्यक्ष प्रमाणाभास है- ऐसा मानना चाहिये। इस विषय का प्रथम भाग में प्रत्यक्ष परिच्छेद में विस्तारपूर्वक कथन किया है। परोक्षाभास वैशेद्यपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणज्ञानवत् ॥7॥ सूत्रार्थ- विशद ज्ञान को भी परोक्ष मानना परोक्षाभास है, जैसे मीमांसक का करणज्ञान, अर्थात्- मीमांसक करणज्ञान को [जिसके द्वारा जाना जाय ऐसा ज्ञान स्वयं परोक्ष रहता है ऐसी मीमांसक की मान्यता है, तदनुसार] परोक्ष मानते हैं वह मानना परोक्षाभास है। 4. करण ज्ञान में अव्यवधानरूप से जानना रूप वैशद्य असिद्ध नहीं है, यह ज्ञान भी स्व और पर को बिना किसी अन्य प्रतीति की अपेक्षा किये प्रतिभासित करता है अतः प्रत्यक्ष है, इसे परोक्ष मानना परोक्षाभास है। इस विषय का विवेचन पहले कर चुके हैं। अनुभूत विषय में “वह" इस प्रकार की प्रतीति होना स्मरण प्रमाण कहलाता है यदि बिना अनुभूत किया पदार्थ हो तो
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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