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प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
6/6 अवैशये प्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्मालूमदर्शनाद् वह्निविज्ञानवत् ॥6॥
3. विशदं प्रत्यक्षमित्युक्तं ततोन्यस्मिन्नऽवैशद्ये सति प्रत्यक्षं तदाभासं होता है, पर वस्तु को जानकर हर्ष विवाद होता है वह हो नहीं सकता इत्यादि बहुत प्रकार से इन मतों का निरसन किया गया है। इस प्रकार नैयायिक, भाट्ट और प्रभाकर ये तीनों अस्वसंविदित ज्ञानवादी हैं, इनका स्वीकृत प्रमाण नहीं प्रमाणाभास है।
गृहीत ग्राही ज्ञान प्रमाणाभास इसलिये है कि जिस वस्तु को पहले ग्रहण कर चुके उसको जान लेने से कुछ प्रयोजन नहीं निकलता। निर्विकल्प दर्शन को प्रमाण मानने वाले बौद्ध हैं। उनका अभिमत ज्ञान वस्तु का निश्चायक नहीं होने से प्रमाणाभास की कोटि में आ जाता है। संशयादि ज्ञान को सभी मत वाले प्रमाणाभासरूप स्वीकार करते हैं। सन्निकर्ष को प्रमाण मानने वाले वैशेषिक का मत भी बाधित होता है प्रथम तो बात यह है इन्द्रिय और पदार्थ का स्पर्श सन्निकर्ष या छूना कोई प्रमाण या ज्ञान है नहीं। वह तो एक तरह का प्रमाण का कारण है, दूसरी बात हर इन्द्रियाँ पदार्थ को स्पर्श करके जानती ही नहीं। चक्षु और मन तो बिना स्पर्श किये ही जानते हैं इत्यादि इस विषय को पहले बतला चुके हैं। प्रत्यक्षाभास
अवैशये प्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्माद्धृमदर्शनाद् वह्निविज्ञानवत् ॥6॥
सूत्रार्थ- अविशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहना प्रत्यक्षाभास है, जैसे अचानक धूम के दर्शन से होने वाले अग्नि के ज्ञान को बौद्ध प्रत्यक्ष मानते हैं वह प्रत्यक्षाभास।
3. पहले प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण करते हुए विशदं प्रत्यक्षम् ऐसा कहा था, इस लक्षण से विपरीत अर्थात् अविशद-अस्पष्ट या अनिश्चायक ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं किन्तु प्रत्यक्षाभास है, जैसे- जिस व्यक्ति को धूप और वाष्प का भेद मालूम नहीं है उस ज्ञान के अभाव में उसको निश्चयात्मक व्याप्ति ज्ञान भी नहीं होता कि जहाँ जहाँ धूम होता है वहाँ