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________________ 5/3 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 217 8. यच्चोच्यते-आत्मव्यतिरिक्तक्रियाकारि प्रमाणं कारकत्वाद्वास्यादिवत्; तत्र कथञ्चिद्भेदे साध्ये सिद्धसाध्यता, अज्ञाननिवृत्तेस्तद्धर्मतया हानादेश्च तत्कार्यतया प्रमाणात्कथञ्चिद्भेदाभ्युपगमात्। ___9. सर्वथा भेदे तु साध्ये साध्यविकलो दृष्टान्तः, वास्यादिना हि काष्ठादेश्छिदा निरूप्यमाणा छेद्यद्रव्यानुप्रवेशलक्षणैवावतिष्ठते। स चानुप्रवेशो वास्यादेरात्मगत एव धर्मो नार्थान्तरम्। है “प्रमीयते येन इति प्रमाणं"। कर्तृसाधन में यः प्रमिमीते सः प्रमाताइस प्रकार स्वतन्त्र स्वरूप कर्त्ता की विवक्षा होती है। भाव साधन में स्व-पर की निश्चयात्मक ज्ञप्तिक्रिया दिखायी जाती है "प्रमितिः प्रमाणं" यह फलस्वरूप है। इस तरह कथंचित् भेद स्वीकार करने से ही कार्य कारण भाव भी सिद्ध होता है कोई विरोध नहीं आता। 8. परवादी का कहना है कि आत्मा से पृथक् क्रिया को करने वाला प्रमाण होता है, क्योंकि यह कारक है जैसे वसूला आदि कारक होने से कर्ता पुरुष से पृथक् क्रिया को करते हैं, इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि यदि आत्मा से प्रमाण को कथंचित् भिन्न सिद्ध करना है तो सिद्ध साध्यता है, क्योंकि हम जैन ने भी अज्ञान निवृत्ति को प्रमाण का धर्म माना है और हानादिक उसके [धर्म के] कार्य माने हैं, अतः प्रमाण से फल का या प्रमाता का कथंचित् भेद मानना इष्ट है। 9. यदि इन प्रमाणादि में सर्वथा भेद सिद्ध करेंगे तो उस साध्य में वसूले का दृष्टान्त साध्य विकल ठहरेगा। इसी को स्पष्ट करते हैंवसूला आदि द्वारा काष्ठादि की जो छेदन क्रिया होती है उस क्रिया को देखते हैं तो वह छेद्यद्रव्य-काष्ठादि में अनुप्रविष्ट हुई ही सिद्ध होती है, वसूला लकड़ी में प्रवेश करके छेदता है। यह जो प्रवेश हुआ वह स्वयं वसूले का ही परिणमन या धर्म है अर्थान्तर नहीं। अतः शंकाकार का जो कहना था कि कर्त्ता आदि से करण पृथक्-भिन्न ही होना चाहिये, प्रमाता आदि से प्रमाण भिन्न ही होना चाहिये, यह कहना उसी के वसूले के दृष्टान्त द्वारा बाधित होता है।
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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