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________________ 216 प्रमेयकमलमार्तण्डसार: 5/3 हि पदार्थपरिच्छित्तौ साधकतमत्वेन व्याप्रियमाणं स्वरूपं प्रमाणं निर्व्यापारम्, व्यापारं तु क्रियोच्यते स्वातन्त्र्येण पुनर्व्याप्रियमाणं प्रमाता, इति कथञ्चित्तद्भेदः। 7. प्राक्तनपर्यायविशिष्टस्य कथञ्चिदवस्थितस्यैव बोधस्य परिच्छित्तिविशेषरूपतयोत्पत्तेरभेद इति। साधनभेदाच्च तद्भेदः करणसाधनं हि प्रमाणं साधकतमस्वभावम्, कर्तृसाधनस्तु प्रमाता स्वतन्त्रस्वरूपः, भावसाधना तु क्रिया स्वार्थनिर्णीतिस्वभावा इति कथञ्चिद्भेदाभ्युपगमादेव कार्यकारणभावस्याप्यविरोधः। समाधान- यह शंका निर्मूल है प्रमाता आदि में लक्षण भिन्न भिन्न होने से कथंचित् भेद माना है पदार्थ के जानने में साधकतमत्व कारणरूप से परिणमित होता हुआ आत्मा का जो स्वरूप है उसे प्रमाण कहते हैं जो कि निर्व्यापाररूप है तथा जो व्यापार है जानन क्रिया है वह फल है। स्वतन्त्ररूप से जानन क्रिया में प्रवृत्त हुआ आत्मा प्रमाता है, इस तरह प्रमाण आदि में कथंचित् भेद माना गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि- आत्मा प्रमाता कहलाता है जो कर्ता है, आत्मा में ज्ञान है वह प्रमाण है, और जानना फल है। कभी-कभी प्रमाता और प्रमाण इनको भिन्न न करके प्रमाता जानता है ऐसा भी कहते हैं क्योंकि प्रमाता आत्मा और प्रमाण ज्ञान ये दोनों एक ही द्रव्य हैं केवल संज्ञा, लक्षणादि की अपेक्षा भेद है। इस तरह कर्ता और कारण को भेद करके तथा भेद न करके कथन करते हैं, "प्रमाता घट जानाति" यहाँ पर कर्त्ता करण दोनों को पृथक् नहीं किया, प्रमाता प्रमाणेन घट जानाति- इस तरह की प्रतीति या कथन करने पर आत्मा के ज्ञान को पृथक करके आत्मा कर्ता और ज्ञान करण बनता है। 7. प्राक्तन (पूर्व) पर्याय से विशिष्ट तथा कथंचित् अवस्थित ऐसा जो ज्ञान है वही परिच्छिति विशेष अर्थात् फलरूप से उत्पन्न होता है। अतः प्रमाण और फल में अभेद भी स्वीकार किया है। कर्तृसाधन आदि की अपेक्षा भी प्रमाता आदि में भेद होता है। साधकतम स्वभाव रूप कारण साधन होता है, इसमें प्रमाण करण बनता
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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