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________________ 218 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 5/3 10 ननु छिदा काष्ठस्था वास्यादिस्तु देवदत्तस्थ इत्यनयोर्भेद एव; इत्यप्यसुन्दरम्; सर्वथा भेदस्यैवमसिद्धेः, सत्त्वादिनाऽभेदस्यापि प्रतीतेः। न च 'सर्वथा करणाद्भिन्नैव क्रिया' इति नियमोस्ति; 'प्रदीपः स्वात्मनात्मानं प्रकाशयति' इत्यत्राभेदेनाप्यस्याः प्रतीतेः। 11. न खलु प्रदीपात्मा प्रदीपाद्भिन्नः; तस्याऽप्रदीपत्वप्रसङ्गात् पटवत्। प्रदीपे प्रदीपात्मनो भिन्नस्यापि समवायात्प्रदीपपत्वसिद्धिरिति चेत्; न; अप्रदीपेपि घटादौ प्रदीपत्वसमवायानुषङ्गात्। ___10. शंका- छेदन क्रिया तो काष्ठ में हो रही और वसूला देवदत्त के हाथ में स्थित है इस तरह क्रिया और करण इनमें भेद ही रहता है? समाधान- यह बात गलत है, इस तरह भी सर्वथा भेद सिद्ध नहीं होता, सत्व आदि धर्मों की अपेक्षा इन कारण और क्रिया में अभेद भी है। अर्थात् कर्त्ता देवदत्तादि करण वसूलादि एवं छेदन क्रिया ये सब अस्ति-सत्वरूप है, सत्वदृष्टि से इनमें कथंचित् अभेद भी है। तथा यह सर्वथा नियम है कि करण से क्रिया भिन्न ही है, “प्रदीपः स्वात्मना आत्मानं प्रकाशयति" इत्यादि स्थानों पर वह क्रिया करण से अपृथक् अभिन्न प्रतीत हो रही है। प्रदीप का जो प्रकाशरूप स्वभाव है वह प्रदीप से भिन्न नहीं है और यदि भिन्न हो तो प्रदीप-अप्रदीप बन जायेगा जैसे प्रदीप से पट पृथक् होने के कारण अप्रदीप है। 11. शंका- प्रदीप से प्रदीप का स्वरूप भिन्न है किन्तु समवाय से प्रदीप में प्रदीपत्व सिद्ध होता है? समाधान- यह कथन उचित नहीं, इस तरह अप्रदीप रूप जो घट पट आदि पदार्थ हैं उनमें भी प्रदीपपने का समवाय होने का प्रसंग आता है। क्योंकि जैसे प्रदीपत्व आने से पहले प्रदीप अप्रदीपरूप है वैसे पट घट इत्यादि पदार्थ भी अप्रदीप हैं।
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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