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212 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
5/2 2. अथाज्ञाननिवृत्तिर्ज्ञानमेवेत्यनयोः सामर्थ्यसिद्धत्वान्यथानुपपत्तेरभेदः; तन्नः अस्याऽविरुद्धत्वात्। सामर्थ्यसिद्धत्वं हि भेदे सत्येवोपलब्धं निमन्त्रणे
समाधान- यह शंका ठीक नहीं, अज्ञान जो होता है वह नहीं जानने रूप हुआ करता है। वह स्व-पर का व्यामोहरूप होता है। उसकी निवृत्ति होने पर जैसा का तैसा स्व-पर का जानना होता है। यह प्रमाण का धर्म है। अतः अज्ञान निवृत्ति प्रमाण का कार्य है [फल है]- ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है यदि प्रमाण अपने विषयभूत स्व-पर अर्थ के स्वरूप में होने वाला व्यामोह (अज्ञान विपर्यय आदि] दूर नहीं कर सकता है तो वह बौद्ध के निर्विकल्प दर्शन और वैशेषिक के सन्निकर्ष के समान होने से प्रमाणरूप नहीं होगा। अर्थात् निर्विकल्प दर्शन स्वविषयसम्बन्धी अज्ञान तथा व्यामोह को दूर नहीं करता, सन्निकर्ष भी अज्ञान को दूर नहीं करता, अतः अप्रमाण है।
यदि प्रमाण अज्ञान को दूर नहीं करेगा तो अप्रमाण हो जाएगा। अज्ञान निवृत्ति प्रमाण का स्वभाव या धर्म है, धर्म-धर्मी से सर्वथा भिन्न या अभिन्न नहीं होता, यदि धर्म-धर्मी का परस्पर में सर्वथा भेद अथवा अभेद स्वीकार करेंगे तो यह धर्म इसी धर्मी का है ऐसा तद्भाव नहीं हो सकेगा, जिस तरह केवल धर्म या धर्मी में तद्भाव नहीं बनता अथवा अर्थान्तरभूत दो पदार्थों का तद्भाव नहीं होता।
कहने का तात्पर्य धर्मी से धर्म सर्वथा अभिन्न माने तो दोनों में से एक ही रहेगा क्योंकि वे सर्वथा अभिन्न हैं एवं धर्मी से धर्म सर्वथा भिन्न माने तो इस धर्मी का यह धर्म है ऐसा कथन नहीं हो सकेगा।
2. शंका- अज्ञान निवृत्ति ज्ञान ही है इसलिये इनमें सामर्थ्य सिद्धत्व की अन्यथानुपपत्ति से अभेद ही सिद्ध होता है, अर्थात्अज्ञाननिवृत्ति की अन्यथानुपपत्ति से ज्ञान सिद्धि और ज्ञान की अन्यथानुपपत्ति से अज्ञाननिवृत्ति की सिद्धि होती है। अतः इनमें अभेद है।
समाधान- ऐसा कहना गलत है। ज्ञान की सामर्थ्य से ही अज्ञान निवृत्ति की सिद्धि हो जाती है तो भी इनमें भेद मानना अविरुद्ध है। क्योंकि सामर्थ्य सिद्धपना भेद होने पर ही देखने में आता है जैसे