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________________ 5/2 प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार: 213 आकारणवत्। कथं चैवं वादिनो हेतावन्वयव्यतिरेकधर्मयोर्भेदः सिध्येत् ? 'साध्यसद्भावेऽस्तित्वमेव हि साध्याभावे हेतोर्नास्तित्वम्' इत्यनयोरपि सामर्थ्यसिद्धत्वाविशेषात् । 3. न चानयोरभेदे कार्यकारणभावो विरुध्यते; अभेदस्य तद्भावाविरोधकत्वाज्जीवसुखादिवत्। साधकतमस्वभावं हि प्रमाणम् स्वपररूपयोज्ञप्तिलक्षणामज्ञाननिवृत्तिं निर्वर्तयति तत्रान्येनास्या निर्वर्तनाभावात्। साधकतमस्वभावत्वं चास्य स्वपरग्रहणव्यापार एव तद्ग्रहणाभिमुख्यलक्षणः । तद्धि स्वकारण निमन्त्रण में आह्वानन सामर्थ्य सिद्ध है। दूसरी बात यह है कि यदि सामर्थ्य सिद्धत्व होने से अज्ञान निवृत्ति और ज्ञान इनको अभेदरूप ही मानेंगे तो आपके यहाँ हेतु में अन्वय धर्म और व्यतिरेक धर्म में भेद किस प्रकार सिद्ध होगा? अर्थात् नहीं होगा, क्योंकि साध्य के सद्भाव में होना ही हेतु का साध्य के अभाव में नहीं होना है, हेतु का साध्य में जो अस्तित्त्व है वहीं साध्य के अभाव में नास्तित्त्व है इस तरह ये दोनों सामर्थ्य सिद्ध हैं, कोई विशेषता " नहीं होने से साध्य के होने पर होना अन्वयी हेतु है अथवा हेतु का अन्वय धर्म है और साध्य के नहीं होने पर नहीं होना व्यतिरेक है अथवा हेतु का व्यतिरेक धर्म है। इस तरह उस हेतु के अन्वय-व्यतिरेकरूप दो धर्म न मानकर अभेद स्वीकारना होगा। 3. प्रमाण और अज्ञान निवृत्तिरूप प्रमाण का फल इनमें कथंचित् अभेद मानने पर भी कार्य कारणपना विरुद्ध नहीं है अर्थात् प्रमाण कारण है और अज्ञान निवृत्ति उसका कार्य है ऐसा कार्य कारणभाव अभेद पक्ष में भी [ प्रमाण से उसके फल को अभिन्न मानने पर भी] विरुद्ध नहीं पड़ता, अभेद का तद्भाव के साथ कोई विरोधकपना नहीं है। जैसे जीव और सुख में अभेद है फिर भी जीव का कार्य सुख है- ऐसा कार्यकारणभाव मानते हैं। पदार्थों को जानने के लिए साधकतम स्वभाव ही प्रमाण है जो स्व पर को जानने रूप ज्ञप्ति लक्षण वाला है क्यों कि सन्निकर्षादि में
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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