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________________ 5/2 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 211 1. द्विविधं हि प्रमाणस्य फलं ततो भिन्नम्, अभिन्नं च। तत्राज्ञाननिवृत्तिः प्रमाणादभिन्नं फलम्। ननु चाज्ञाननिवृत्तिः प्रमाणभूतज्ञानमेव, न तदेव तस्यैव कार्यं युक्तं विरोधात्, तत्कुतोसौ प्रमाणफलम्? इत्यनुपपन्नम्। यतोऽज्ञानमज्ञप्तिः स्वपररूपयोर्व्यामोहः, तस्य निवृत्तिर्यथावत्तद्रूपयोििप्तः, प्रमाणधर्मत्वात् तत्कार्यतया न विरोधमध्यास्ते। स्वविषये हि स्वार्थस्वरूपे प्रमाणस्य व्यामोहविच्छेदाभावे निर्विकल्पकदर्शनात् सन्निकर्षाच्चाविशेषप्रसङ्गतः प्रामाण्यं न स्यात्। न च धर्मधर्मिणोः सर्वथा भेदोऽभेदो वा; तद्भावविरोधानुषङ्गात् तदन्यतरवदर्थान्तरवच्च। सूत्रार्थ- अज्ञान का दूर होना प्रमाण का फल है, तथा हेय पदार्थ में हेयत्व की (त्याग, छोड़ने की) बुद्धि होना, उपादेय में ग्रहण की बुद्धि होना और उपेक्षणीय वस्तु में उपेक्षा बुद्धि होना प्रमाण का फल है। यह प्रमाण का फल प्रमाण से कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न भी है॥2॥ किसी भी वस्तु को जानने से तत्संबंधी अज्ञान दूर होता है, यह प्रमाण का जानने का फल [लाभ] है, जिस वस्तु को जाना है उसमें यह मेरे लिए उपयोगी वस्तु है ऐसा जानना उपादेय बुद्धि कहलाती है, यह कार्य भी प्रमाण का होने से उसका फल कहलाता है। तथा हानिकारक पदार्थ में यह छोड़ने योग्य है ऐसी प्रतीति होना भी प्रमाण का फल है जो न उपयोगी है और न हानिकारक है ऐसे पदार्थों में उपेक्षाबुद्धि होना भी प्रमाण का ही कार्य है। 1. यह प्रमाण का फल प्रमाण से भिन्न होता है तथा अभिन्न भी होता है। जो अज्ञान की निवृत्ति होना रूप फल है वह तो प्रमाण से अभिन्न है। शंका- अज्ञान निवृत्ति होना प्रमाणभूत ज्ञान ही है फिर उसे प्रमाण का कार्य कैसे कह सकते हैं? यदि कहेंगे तो विरुद्ध होगा, अतः प्रमाण का फल अज्ञान निवृत्ति है- ऐसा कहना किस तरह सिद्ध होगा?
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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