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प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
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पञ्चमपरिच्छेदः
प्रमाणफलविमर्शः अथेदानीं फलविप्रतिपत्तिनिराकरणार्थमज्ञाननिवृत्तिरित्याद्याहअज्ञाननिवृत्तिानोपादानोपेक्षाश्च फलम् ॥1॥ प्रमाणादभिन्न भिन्नं च ॥2॥
पञ्चमपरिच्छेद
प्रमाण फलविमर्श अब आचार्य यहाँ पर प्रमाण के फल पर विमर्श करते हैं। परीक्षामुख तथा प्रमेयरत्नमाला इन दोनों ग्रन्थों में प्रमाण के फल का प्रकरण पाँचवें परिच्छेद में दिया है। हमने भी यही किया है किन्तु प्रभाचन्द्राचार्य ने इसको चौथे परिच्छेद में ही लिया है। प्रमाण का विवेचन करते समय चार विषयों में विवाद होता है प्रमाण का स्वरूप लक्षण, प्रमाण की संख्या, प्रमाण का विषय और प्रमाण का फल इस तरह स्वरूप विप्रतिपत्ति, संख्या विप्रतिपत्ति, विषय विप्रतिपत्ति, फल विप्रतिपत्ति इन चार विवादों में से प्रथम परिच्छेद में स्वरूप विप्रतिपत्ति को दूर करते हुए प्रमाण का निर्दोष स्वरूप बताया है। द्वितीय तृतीय परिच्छेद में प्रमाण की संख्या को निश्चित करके संख्या विप्रतिपत्ति दूर की। चतुर्थ परिच्छेद में प्रमाण के विषय का नियम बनाकर विषय विप्रतिपत्ति को समाप्त किया। अब यहाँ परीक्षामुख ग्रन्थ की अपेक्षा पाँचवें परिच्छेद में अंतिम फल विप्रतिपत्ति का निराकरण करते हुए माणिक्यनंदी आचार्य कहते हैं
अज्ञाननिवृत्तिर्हानोपादानोपेक्षाश्च फलम् ॥1॥ प्रमाणादभिन्न भिन्नं च ॥2॥