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4/9 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
209 'विषयभेदात्प्रमाणभेदः' इति सौगतमतं प्रतिक्षिपता प्रतिक्षिप्तत्वात्। नाप्युभयं स्वतन्त्रम्, तथाभूतस्यास्याप्यप्रतिभासनात्।
सामान्य विशेषात्मक मानता है। सामान्य और विशेष है स्वरूप जिसका उसे सामान्य विशेषात्मक कहते हैं। यह सामान्य विशेषात्मक पदार्थ प्रमाण का विषय होता है; अकेला सामान्य या अकेला विशेष प्रमाण का विषय नहीं होता है प्रमाण अकेले सामान्यादि को विषय कैसे नहीं करता इस बात का विवेचन दूसरे अध्याय में प्रमेयभेदात् प्रमाणभेदः माननेवाले बौद्ध का खण्डन करते हुए हो चुका है अर्थात् सामान्य एक पृथक पदार्थ है और उसका ग्राहक अनुमान या विकल्प है तथा विशेष एक पृथक तथा वास्तविक कोई पदार्थ है और उसका ग्राहक प्रत्यक्ष प्रमाण है इत्यादि सौगतीय मत पहले ही खण्डित हो चुका है अतः निश्चित होता है कि प्रत्येक पदार्थ स्वयं सामान्य विशेषात्मक ही है।
कोई परवादी सामान्य और विशेष को एकत्र मानकर भी उन्हें स्वतन्त्र बतलाते हैं, जैन दर्शन के अनुसार वह भी गलत है, क्योंकि ऐसा प्रतिभास नहीं होता है।
इस प्रकार अन्वयी आत्मा सिद्धि विमर्श यहाँ सम्पन्न होता है।