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________________ 4/9 प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः 207 ज्ञानक्षणी ज्ञान (त) वन्तौ नापि जानीतः किं तहिं ? एको ज्ञातवान् अन्यस्तु जानातीति । 27. चतुर्थपक्षोप्युक्तः अतीतवर्त्तमानज्ञानक्षणव्यतिरेकेणान्यस्य सन्तानस्यासम्भवात्। कल्पितस्य सम्भवेपि न ज्ञातृत्वम्। न ह्यऽसौ ज्ञान (त) वान्पूर्वं नाप्यधुना जानाति कल्पितत्वेनास्याऽवस्तुत्वात् । न चावस्तुनो ज्ञातृत्वं सम्भवति वस्तुधर्मत्वात्तस्य इति अतोऽन्यस्य प्रमातृत्वासम्भवादात्मैव प्रमाता सिद्ध्यति । इति सिद्धोऽतः प्रत्यभिज्ञानादात्मेति । अथेदानीं व्यतिरेकलक्षणं विशेषं व्याचिख्यासुरर्थान्तरेत्याह 44 पायेगा, क्योंकि वे दोनों न ज्ञात है ( अतीत में) और न जान रहे ( वर्त्तमान) किन्तु उन ज्ञानक्षणों में से एक तो “ ज्ञातवान् -जाना था "। इस प्रकार को लिए हुए है, और दूसरा “जानाति - जान रहा है" इस आकार के लिए है। 27. चौथा विकल्प- संतान अहं बुद्धि को विषय करती हैऐसा कहना भी अयुक्त है, क्योंकि अतीत और वर्तमान ज्ञान क्षण को छोड़कर अन्य संतान नामक ज्ञानक्षण नहीं है काल्पनिक संतान मान लें तो वह ज्ञाता नहीं होगी। काल्पनिक संतान न पहले ज्ञातवान् है और न वर्तमान ज्ञाता है क्योंकि वह अवस्तुरूप है अवस्तु में ज्ञातृत्व संभव नहीं है, क्यों कि ज्ञातृत्व वस्तु का धर्म है। इस प्रकार अतीत आदि ज्ञानक्षण अहं बुद्धि विषय वाले सिद्ध नहीं है। अतीतादि क्षणों को छोड़कर अन्य प्रमाता बन नहीं सकता। अतः निश्चित होता है कि आत्मा ही प्रमाता है, और वह प्रत्यभिज्ञान द्वारा सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार यहाँ तक विशेष का प्रथम भेद पर्याय विशेष का विवेचन किया प्रसंगोपात्त आत्मा का अन्वयीपना अर्थात् आत्मद्रव्य कथंचित् द्रव्यदृष्टि से अपनी सुखादि पर्यायों से अभिन्न है और कथंचित् पर्यायदृष्टि से भिन्न भी है ऐसा सिद्ध किया, अब विशेष का द्वितीय भेद व्यतिरेक विशेष का व्याख्यान करते हैं
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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