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4/9 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
205 22. अहमेव ज्ञातवानहमेव वेद्मि' इत्यादेरेकप्रमातृविषयप्रत्यभिज्ञानस्य च सद्भावात्। तथा चोक्तं भट्टेन
तस्मादुभयहानेन व्यावृत्त्यनुगमात्मकः। पुरुषोभ्युपगन्तव्यः कुण्डलादिषु सर्पवत्॥ तस्मात्तत्प्रत्यभिज्ञानात्सर्वलोकावधारितात् । नैरात्म्यवादबाधः स्यादिति सिद्धं समीहितम्॥” इति
23. अथ कथमतः प्रत्यभिज्ञानादात्मसिद्धिरिति चेत्? उच्यते'प्रमातृविषयं तत्' इत्यत्र तावदावयोरविवाद एव। स च प्रमाता भवन्नात्मा
22. आत्मा को सिद्ध करने वाला और भी ज्ञान है- मैंने ही जाना था, अभी मैं ही जान रहा हूँ, इत्यादि रूप से एक ही प्रमाता को विषय करने वाला प्रत्यभिज्ञान मौजूद है। भट्ट मीमांसक ने भी कहा है
“आत्मद्रव्य में हर्ष-विषाद, सुख-दु:ख आदि विवर्तो को सर्वथा भिन्न या अभिन्न मानते हैं तो बाधा आती है अर्थात् आत्म द्रव्य को एक अन्वयी न मानकर द्रव्य तथा पर्यायों को सर्वथा क्षणिक एवं पृथक्-पृथक् मानते हैं तो दोनों ही असिद्ध हो जाते हैं। अतः व्यावृत्त अनुवृत्त स्वरूप वाला पुरुष आत्मा नित्य है ऐसा स्वीकार करना चाहिए, जैसे कि सर्प एक स्थिर है और उसमें कुण्डलाकार होना लम्बा होना इत्यादि पर्यायें होती हैं अथवा सुवर्ण एक है और वही कड़ा, हार, कुण्डल आदि आकारों में क्रम क्रम से प्रवृत्त होता है"1॥
सम्पूर्ण लोक में प्रसिद्ध प्रत्यभिज्ञान द्वारा आत्मा की सिद्धि होने से बौद्ध का नैरात्म्यवाद बाधित होता है। अतः हमारा आत्मनित्यवाद सिद्ध होता है।।2।।
23. यदि कोई कहे कि प्रत्यभिज्ञान द्वारा आत्मा की सिद्धि कैसे होती है? इसे बतलाते हैं-प्रत्यभिज्ञान प्रमाता को विषय करता है- इस विषय में जैन तथा बौद्ध का विवाद नहीं है, अब यह देखना है कि वह
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