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________________ 204 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 4/9 21. क्रमवृत्तिसुखादीनामेक सन्ततिपतित्वेनानुसन्धाननिबन्धनत्वम्; इत्यपि तादृगेव; आत्मनः सन्ततिशब्देनाभिधानात्। तेषां कथञ्चिदेत्वाभावे नैकपुरुषसुखादिवदेकसन्ततिपतितत्वस्याप्ययोगात्। आत्मनोऽनभ्युपगमे च कृतनाशाकृताभ्यागमदोषानुषङ्गः। कर्तुर्निरन्वयनाशे हि कृतस्य कर्मणो नाशः कर्तुः फलानभिसम्बन्धात्, अकृताभ्यागमश्च अकर्तुरेव फलाभिसम्बन्धात्। ततस्तद्दोषपरिहारमिच्छतात्मानुगमोभ्युपगन्तव्यः। न चाप्रमाणकोयम्; तत्सद्भावावेदकयोः स्वसंवेदनानुमानयोः प्रतिपादनात्। भेद रहा। “अहं" मैं इस प्रकार से जो अपने में प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा प्रसिद्ध है, तो सहभावी गुण एवं क्रमभावी पर्यायों को आत्मसात् (धारण) कर रहा है- ऐसे आत्मा के ही “वासना" ऐसा नामान्तर कर दिया है, और कुछ नहीं। 21. बौद्ध- क्रम से होने वाले सुख दुःख आदि का संतति रूप प्रमुख होना है वही अनुसन्धानात्मक ज्ञान का कारण है। जैन- यह कथन भी पहले के समान है, यहाँ आत्मा को "संतति" शब्द से कहा। जब तक उन सुख दुःख या हर्ष विषाद आदि पर्यायों के कथंचित् द्रव्यदृष्टि से एकपना नहीं मानते हैं तब तक अनेक पुरुषों के सुख दुःखादि में जैसे एकत्व का ज्ञान नहीं होता; वैसे ही एक पुरुष के सुखादि में भी एक संतति पतित्त्व से अनुसन्धान होना शक्य नहीं। यदि आत्मा द्रव्य को नहीं माने तो कृत प्रवाश और अकृत अभ्यागम नामा दोष भी उपस्थित होता है। इसी का स्पष्टीकरण करते हैं- जब कर्ता का निरन्वय नाश हो जाता है तब उसके द्वारा किये हुए कर्म का भी नाश हो जायेगा फिर कर्ता को उसका फल कैसे मिलेगा? तथा जिसने कर्म को नहीं किया है उसको फल मिलेगा। अतः इस दोष को दूर करने के लिये आप बौद्धों को अनुगामी एक आत्मानामा द्रव्य को अवश्य स्वीकार करना चाहिये। यह आत्मा अप्रामाणिक भी नहीं समझना, क्योंकि आत्मा को सिद्ध करने वाले स्वसंवेदन ज्ञान तथा अनुमान ज्ञान हैं, ऐसा प्रतिपादन कर दिया है।
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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