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4/9 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
203 दनुसन्धानप्रत्ययोत्पत्तिः, इत्यप्यसत्यम्; अनुसन्धानवासना हि यद्यनुसन्धीयमान सुखादिभ्यो भिन्ना; तर्हि सन्तानान्तरसुखादिवत्स्वसन्तानेप्यनुसन्धानप्रत्ययं नोत्पादयेदविशेषात्। तदभिन्ना चेत्: तावद्धा भिद्येत। न खलु भिन्नादभिन्नमभिन्न नामाऽतिप्रसङ्गात्। तथा तत्प्रबोधात्कथं सुखादिष्वेकमनुसन्धानज्ञानमुत्पद्येत? तेभ्यस्तस्याः कथाञ्चिद्भेदे नाममात्रं भिद्येत अहमहमिकया स्वसंवेदनप्रत्यक्षप्रसिद्धस्यात्मनः सहक्रमभाविनो गुणपर्यायानात्मसात्कुर्वतो 'वासना' इति नामान्तरकरणात्।
बौद्ध- मैं पहले दु:खी था इत्यादि प्रकार की वैसी वासना प्रगट होने से ही अनुसंधानात्मक ज्ञान पैदा होता है।
जैन- यह असत् है- अनुसन्धान को करने वाली उक्त वासना अनुसंधीयमान सुख दु:ख आदि से भिन्न है कि अभिन्न? यदि भिन्न है तो जैसी वह वासना अन्य संतानों में सुखादि का अनुसंधान ज्ञान (प्रत्यभिज्ञान) पैदा नहीं कराती, वैसे ही अपने संतान में भी नहीं करा सकेगी। क्योंकि कोई विशेषता नहीं हैं, जैसे पर-सन्तानों से भिन्न है, वैसे ही स्व-संतान से भी भिन्न है।
यदि उस वासना को सुखादि से अभिन्न मानें, तो जितने सुखादि के भेद हैं उतने वासना के भेद मानने होंगे क्योंकि ऐसा हो नहीं सकता कि वासना उन सुखादि से अभिन्न हो और एक भी बनी रहे। यदि वासना अनेकों सुख दु:ख आदि में अभिन्नपने से रहकर भी अपने एकत्व को भिन्न बनाये रख सकती है तो घट, पट, गृह आदि से अभिन्न जो उनके घटत्व आदि स्वरूप हैं, वे भी भिन्न मानने होंगे।
इस अतिप्रसंग को हटाने के लिए कहना होगा कि जितने सुखादि के भेद हैं उतने वासना के भेद हैं, इस तरह जब वासनायें अनेक हैं तो उनके प्रबोध से सुख दुःख आदि में एक अनुसन्धानात्मक ज्ञान किस प्रकार उत्पन्न होगा? क्योंकि वासना रूप कारण अनेक हैं तो उनसे होने वाला कार्य (ज्ञान) भी अनेक होना चाहिये?
यदि इस दोष को दूर करने के लिए सुख दु:ख आदि से वासना को कथंचित् भेद रूप माना जाय तो आत्मा और वासना में नाममात्र का