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________________ 202 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 4/9 अत्रोदाहरणमाह आत्मनि हर्षविषादादिवत्। 19. ननु हर्षादिविशेषव्यतिरेकेणात्मनोऽसत्त्वादयुक्तमिदमुदाहरणमित्यन्यः; सोप्यप्रेक्षापूर्वकारी; चित्रसंवेदनवदनेकाकारव्यापित्वे नात्मनः स्वसंवेदनप्रत्यक्षप्रसिद्धत्वात्। 'यद्यथा प्रतिभासते तत्तथैव व्यवहर्तव्यम् यथा वेद्याद्याकारात्मसंवेदनरूपतया प्रतिभासमानं संवेदनम्, सुखाद्यनेकाकारैकात्मतया प्रतिभासमानश्चात्मा इत्यनुमानप्रसिद्धत्वाच्च। 20. सुखदुःखादिपर्यायाणामन्योन्यमेकान्ततो भेदे च 'प्रागहं सुख्यासं सम्प्रति दु:खी वर्ते' इत्यनुसन्धानप्रत्ययो न स्यात्। तथाविधवासनाप्रबोधा सूत्रार्थ-एक द्रव्य में क्रम से होने वाले परिणामों को पर्याय विशेष कहते हैं, जैसे आत्मा में क्रमशः हर्ष और विषाद हुआ करते हैं। 19. सौगत- यहाँ बौद्ध शंका करते हैं कि हर्ष और विषाद आदि को छोड़कर दूसरा कोई आत्मा नामा पदार्थ नहीं है, अत: उसका उदाहरण देना अयुक्त है? जैन- जैन इस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि आपका यह कथन अविचारकपने का सूचक है। जिस प्रकार आप एक चित्र ज्ञान को अनेक नील पीत आदि आकारों में व्यापक मानते हैं वैसे आत्मा अनेक हर्षादि परिणामों में व्यापक रहता है- ऐसा मानना पड़ेगा, क्योंकि ऐसा स्वयं अपने को ही साक्षात् अनुभव में आता है। जो जैसा अनुभव में आता है उस वस्तु को वैसा ही कहना चाहिए। जिस तरह संवेदन (ज्ञान) वेद्य और वेदक आकार रूप में प्रतीत होता है तो उसे वैसा मानते हैं, उसी तरह आत्मा भी सुख तथा दुख आदि अनेक आकार से प्रतीत होता है अतः उसे वैसा मानना चाहिये। इस प्रकार अनुमान से आत्मा की सिद्धि होती है। 20. सुख-दु:ख आदि पर्याय परस्पर में एकान्त से भिन्न है, उनमें कोई व्यापक एक द्रव्य नहीं है- ऐसा माने तो "मैं पहले सुखी था, अब दु:खी हूँ" इस तरह अनुसंधानरूप ज्ञान नहीं होना चाहिए, किन्तु ऐसा होता है।
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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