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________________ 199 4/6 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः युक्तम् क्षणक्षयानुमानोपन्यासस्यानर्थक्यप्रसङ्गात्। स ह्येकत्वप्रतीतिनिरासार्थो न क्षणक्षयप्रतिपत्त्यर्थः, तस्य प्रत्यक्षेणैव प्रतीत्यभ्युपगमात्। 16. न चानन्तरातीतानागतक्षणयोः प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तौ स्मरणप्रत्यभिज्ञानुमानानां वैफल्यम्; तत्र तेषां साफल्यानभ्युपगमात्, अतिव्यवहिते तदङ्गीकरणात्। 17. न चाक्षणिकस्यात्मनोऽर्थग्राहकत्वे स्वगतबालवृद्धाद्यवस्थानामतीतानागतजन्मपरम्परायाः सकलभावपर्यायाणां चैकदैवोपलम्भप्रसङ्गः; एकत्व प्रतीत नहीं होता, क्योंकि इस तरह कहने से तो क्षणक्षयीवाद को सिद्ध करने के लिये जो अनुमान उपस्थित [सर्वं क्षणिक सत्वात्] किया जाता है वह व्यर्थ सिद्ध हो जायेगा। आप बौद्ध प्रत्येक वस्तु को क्षणिक सिद्ध करते हैं वह उसमें जो अनुमान प्रमाण प्रयुक्त होता है, वह एकत्व-स्थिति की प्रतीति का निराकरण करने के लिये ही प्रयुक्त होता है, न कि क्षणक्षय की प्रतीति के लिये प्रयुक्त होता है, आप स्वयं ही कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु का क्षणिकपना प्रत्यक्ष प्रमाण से ही प्रतिभासित होता है। 16. यदि कोई शंका करे कि प्रत्यक्षादि की सहायता से आत्मा घट कपालादि रूप उत्पाद, व्यय एवं मिट्टी रूप स्थिति को जानता है तो अनंतर अतीत क्षण और अनागत क्षणों में प्रत्यक्ष प्रमाण प्रवृत्त होता है ऐसा मानने पर उन अनंतर [निकटवर्ती] अतीतादि के ग्राहक स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, अनुमान प्रमाण से सब व्यर्थ ठहरेंगे? सो यह शंका ठीक नहीं। हम जैनों ने प्रत्यभिज्ञानादि प्रमाणों की अनन्तर अतीतादि क्षणों में प्रवृत्ति होना माना ही नहीं, प्रत्यभिज्ञानादिक तो अतिदूरवर्ती क्षणों में प्रवृत्त हुआ करते हैं। 17. यदि यहाँ पर कोई परवादी आशंका करे कि नित्य स्वभावी आत्मा यदि पदार्थों का ग्राहक माना जाता है तो स्वयं में होने वाली बाल वृद्ध आदि अवस्थायें और अतीत अनागत जन्मों की सुदीर्घ परंपरा की सकल भाव-पर्यायों का एक ही समय में प्रकट हो जाने का प्रसंग आता है, सो ऐसी बात नहीं है। आत्मा अकेला ग्राहक नहीं होता किन्तु ज्ञान की सहायता लेकर अर्थ ग्राहक होता है ऐसा माना गया है तथा ज्ञान की
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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