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198 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
4/6 विवर्त्तयोावृत्तप्रत्ययादन्योन्यमभावः प्रतीतस्तथा मृदाद्यनुवृत्तप्रत्ययात्स्थितिरपि।
14. ननु कालत्रयानुयायित्वमेकस्य स्थितिः, तस्याश्चाऽक्रमेण प्रतीतौ युगपन्मरणावधि ग्रहणम्, क्रमेण प्रतीतौ न क्षणिका बुद्धिस्तथा तां प्रत्येतुं समर्था क्षणिकत्वात्:
15. इत्यप्ययुक्तम्; बुद्धः क्षणिकत्वेपि प्रतिपत्तुरक्षणिकत्वात्। प्रत्यक्षादिसहायो ह्यात्मैवोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वं भावानां प्रतिपद्यते। यथैव हि घटकपालयोर्विनाशोत्पादौ प्रत्यक्षसहायोसौ प्रतिपद्यते तथा मृदादिरूपतया स्थितिमपि। न खलु घटादिसुखादीनां भेद एवावभासते न त्वेकत्वमित्यभिधातुं इनमें व्यावृत्त रूप प्रतिभास होने से पूर्वपर्याय से उत्तरपर्याय भिन्न रूप प्रतीत होती है- उन दोनों का परस्पर में अभाव मालूम पड़ता है, उसी प्रकार उन्हीं पर्यायों में मिट्टी आदि द्रव्य का अन्वयीपना प्रतीत होता ही है, वह मिट्टी रूप स्थिति अनुवृत्त प्रत्यय का निमित्त है।
14. बौद्ध- द्रव्य रूप जो एक पदार्थ आपने माना है उसका तीनों कालों में अन्वय रूप से [यह मिट्टी है, वह मिट्टी है इत्यादि रूप से] रहना स्थिति कहलाती है। अब इस स्थिति का प्रतिभास आदि अक्रम से होता है तो एक साथ मरणकाल तक [अथवा विवक्षित घटादि का शुरू से आखिर तक] उसका ग्रहण होना चाहिये और यदि क्रम से प्रतिभासित होती है तो क्षणमात्र रहने वाला ज्ञान उस काल त्रयवर्ती स्थिति को जानने के लिये समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि वह क्षणिक है।
15. जैन- यह कथन ठीक नहीं है। ज्ञान या बुद्धि भले ही क्षणिक हो लेकिन जानने वाला आत्मा नित्य है, प्रत्यक्षादि प्रमाणों की सहायता लेकर यह आत्मा ही पदार्थों के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यपने को जानता है, देखा भी जाता है कि जिस प्रकार घट और कपाल रूप उत्पाद और व्यय को आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाण की सहायता लेकर जान लेता है, उसी प्रकार घट आदि की मिट्टी रूप स्थिति को भी जान लेता है। ऐसा कहना तो सम्भव नहीं है कि घट कपाल आदि बाह्य पदार्थ तथा सुख-दु:ख आदि अंतरंग पदार्थ, इनका मात्र भेद ही प्रतीत होता है;