________________
4/6 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
197 सामान्यमित्यभिसम्बन्धः। तदेवोदाहरणद्वारेण स्पष्टयतिमदिव स्थासादिषु।
___12. ननु पूर्वोत्तरविवर्त्तव्यतिरेकेणापरस्य तद्व्यापिनो द्रव्यस्याप्रतीतितोऽसत्त्वात्कथं तल्लक्षणमूवतासामान्यं सत्;
___13. इत्यप्यसमीचीनम्। प्रत्यक्षत एवार्थानामन्वयिरूपप्रतीते : प्रतिक्षणविशरारुतया स्वप्नेपि तत्र तेषां प्रतीत्यभावात्। यथैव पूर्वोत्तर
सूत्रार्थ- पूर्व और उत्तर पर्यायों में व्याप्त होकर रहने वाला द्रव्य उर्ध्वता सामान्य कहलाता है जैसे स्थास, कोश, कुशल, घट आदि पर्यायों में मिट्टी नामा द्रव्य पाया जाता है वह अन्वयी द्रव्य ही उर्ध्वता सामान्य है।
भावार्थ- सामान्य के दो भेद हैं तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य। अनेक द्रव्यों में जो सदृशता पायी जाती है वह तिर्यक् सामान्य कहलाता है, जैसे अनेक गायों में गोपना (गोपत्व) सदृश है। एक ही द्रव्य की पूर्व एवं उत्तरवर्ती जो अवस्था हुआ करती है, उन पर्यायों में द्रव्य रहता हुआ चला आता है वह द्रव्य के ही उर्ध्वता सामान्य नाम से कहा जाता है, इस द्रव्य सामान्य को ही आगे की पर्यायों का उपादान कारण कहते हैं, अर्थात् द्रव्य सामान्य को जैन उपादान कारण नाम से कहते हैं और इसी को नैयायिकादि परवादी समवायी कारण कहते हैं।
12. बौद्ध का कहना है कि पूर्वोतर पर्यायों में व्याप्त रहने वाला द्रव्य उर्ध्वता सामान्य है। ऐसा जैन मानते हैं, किन्तु पूर्वपर्यायों और उत्तरपर्यायों को छोड़कर अन्य कोई द्रव्य नामा पदार्थ उन पर्यायों में व्याप्त रहने वाला प्रतीत नहीं होता है अतः उसका सत्त्व नहीं है, फिर वह उर्ध्वता सामान्य का लक्षण किस प्रकार सत्य कहलायेगा? ।
13. जैन- इस शंका के समाधान में जैन कहते हैं कि यह कथन भी ठीक नहीं है। जगत् के सभी पदार्थों में अन्वय रूप की प्रतीति प्रत्यक्ष प्रमाण से ही हो रही है, उन पदार्थों में प्रतिक्षण नष्ट होना तो स्वप्न में भी प्रतीत नहीं होता है। जिस प्रकार पूर्वपर्याय और उत्तरपर्याय