________________
4/5
194
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः ततो व्यवस्थाऽभावप्रसङ्गः। न चानुगताकारत्वं बुद्धर्बाध्यते; सर्वत्र देशादावनुगतप्रतिभासस्याऽस्खलद्रूपस्य तथाभूतव्यवहारहेतोरुपलम्भात्।
7. अतो व्यावृत्ताकारानुभवानधिगतमनुगताकारमवभासन्त्यऽबाधितरूपा बुद्धिः अनुभूयमानानुगताकारं वस्तुभूतं सामान्य व्यवस्थापयति।
8. ननु विशेष्यव्यतिरेकेण नापरं सामान्यं बुद्धिभेदाभावात्। न च बुद्धिभेदमन्तरेण पदार्थभेदव्यवस्थाऽतिप्रसङ्गात्। तदुक्तम्
आकार अर्थात् यह गौ है, यह गौ है- इत्यादि आकार रूप प्रतीति आती है, वह किसी तरह बाधित भी नहीं होती है, सब जगह हमेशा ही अनुगताकार प्रतिभास अस्खलितपने से उस प्रकार के व्यवहार का निमित्त होता हुआ देखा गया है।
7. इसलिये यह निश्चय होता है कि व्यावृत्ताकार का अनुभव जिसमें नहीं है और अनुगताकार का अवभास जिसमें हो रहा है ऐसी अबाधित प्रतीति या बुद्धि अपने अनुभव में आ रहे अनुगत आकार का [समान धर्म- यह गो है, यह गो है-इत्यादि] वास्तविक निमित्त जो सामान्य है उसकी व्यवस्था करती है- अर्थात् अनुवृत्त प्रत्यय से सामान्य की सिद्धि होती ही है।
8. शंका- विशेष को छोड़कर पृथक् कोई सामान्य दिखाई नहीं देता है, क्योंकि बुद्धि या ज्ञान में तो कोई भेद उपलब्ध नहीं होता है कि यह सामान्य है और यह विशेष है। अर्थात् प्रतिभास में भिन्नता नहीं होने से सामान्य को नहीं मानना चाहिये। बुद्धि में भेद अर्थात् पृथक्-पृथक् प्रतिभास हुए बिना ही पदार्थों के भेदों की व्यवस्था करने लग जायेंगे तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त होगा। कहा भी है कि
विशेष से पृथक् कोई भी सामान्य पृथक् होता तो बुद्धि में अभेद नहीं रहता, अर्थात् विशेष का प्रतिभास भिन्न होता और सामान्य का भिन्न, किन्तु ऐसा नहीं होता है। बुद्धि के आकार के भेद से ही [झलक की विभिन्नता ही] पदार्थ का भेद सिद्ध होता है"।