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4/5 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
195 “न भेदाद्भिन्नमस्त्यन्यत्सामान्यं बुद्ध्यभेदतः। बुद्ध्यात्कारस्य भेदेन पदार्थस्य विभिन्नता॥” इति;
9. तदप्यपेशलम्; सामान्यविशेषयोर्बुद्धिभेदस्य प्रतीतिसिद्धत्वात्। रूपरसादेस्तुल्यकालस्याभिन्नाश्रयवर्तिनोप्यत एव भेदप्रसिद्धः।
10. एकेन्द्रिया- ध्यवसेयत्वाज्जातिव्यक्तयोरभेदे वातातपादावप्यभेदप्रसङ्गः। तत्रापि हि प्रतिभासभेदान्नान्यो भेदव्यवस्थाहेतुः। स च सामान्यविशेषयोरप्यस्ति। सामान्यप्रतिभासो ह्यनुगताकारः, विशेषप्रतिभासस्तु व्यावृत्ताकारोऽनुभूयते।
9. समाधान- यह कथन असुन्दर है, सामान्य और विशेष में बुद्धि का भेद तो प्रतीति सिद्ध है, इसी विषय का खुलासा करते हैंरूप, रस इत्यादि गुण-धर्म एक ही काल में एक ही आश्रयभूत आम्र आदि पदार्थ में रहते हुए भी बुद्धि भेद के कारण ही भिन्न-भिन्न सिद्ध होते हैं, अर्थात् एक पदार्थ में एक साथ रहकर बुद्धि, प्रमाण या ज्ञान, उन रूप, रस आदि का पृथक् पृथक् प्रतिभास कराता है और इस पृथक् प्रतिभास के कारण ही रूप, रसादि की पृथक् पृथक् गुण रूप व्यवस्था हुआ करती है।
10. शंका- जाति और व्यक्ति अर्थात् सामान्य और विशेष ये दोनों ही ऐसे एक ही इन्द्रिय द्वारा जानने योग्य होते हैं [रूप और रस तो ऐसे एक ही इन्द्रियगम्य नहीं होते] अतः सामान्य और विशेष में भेद नहीं मानते हैं?
समाधान- इस तरह एक इन्द्रिय द्वारा गम्य होने मात्र से सामान्य और विशेष को एक रूप माना जाय तो वायु और आतप को भी एक रूप मानना पड़ेगा? क्योंकि ये दोनों भी एक ही स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा गम्य होते हैं। वायु और आतप में भी प्रतिभास के विभिन्नता के कारण ही भेद सिद्ध होता है अर्थात् शीत स्पर्श के प्रतिभास से वायु और उष्म स्पर्श के प्रतिभास से आतप की सिद्धि होती है, अन्य किसी से तो इसमें भेद व्यवस्था नहीं होती है, इस प्रकार की प्रतिभास-भेद या बुद्धि-भेद की व्यवस्था तो सामान्य और विशेष में भी पायी जाती है। सामान्य का