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________________ 4/5 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 193 4. ननु खण्डमुण्डादिव्यक्तिव्यतिरेकेणापरस्य भवत्कल्पितसामान्यस्याप्रतीतितो गगनाम्भोरुहवदसत्त्वादसाम्प्रतमेवेदं तल्लक्षणप्रणयनम् इत्यप्यसमीचीनम्। 5. 'गौ!ः' इत्याद्यबाधितप्रत्ययविषयस्य सामान्यस्याऽभावासिद्धेः। तथाविधस्याप्यस्यासत्त्वे विशेषस्याप्यसत्त्वप्रसङ्गः, तथाभूतप्रत्ययत्वव्यतिरेकेणापरस्य तद्व्यवस्थानिबन्धनस्यात्राप्यसत्त्वात्। 6. अबाधितप्रत्ययस्य च विषयव्यतिरेकेणापि सद्भावाभ्युपगमे सूत्रार्थ- अनेक वस्तुओं में पाया जाने वाला जो सदृश परिणाम है उसे तिर्यक् सामान्य कहते हैं, जैसे खण्डी मुण्डी आदि गायों में गोत्वसास्नादि मानपना समान रूप से पाया जाता है, अनेक गायों में रहने वाला जो गोत्व है, उसी को तिर्यक् सामान्य कहते हैं। 4. यहाँ इस लक्षण पर बौद्ध आपत्ति करते हैं- खण्डी, मुण्डी आदि गायों को छोड़कर अन्य पृथक् आपके द्वारा कल्पित गोत्व सामान्य प्रतीति में नहीं आता है, अतः आकाश पुष्प के समान इस सामान्य का अभाव ही है, इसलिये आप यह जो सामान्य का लक्षण बता रहे हैं वह ठीक नहीं है। 5. जैन- आप बौद्धों की यह आपत्ति अयुक्त है क्योंकि यह गो है, यह गो है, इस प्रकार सभी गो व्यक्तियों में सामान्य का जो बोध हो रहा है वह बाधा रहित है अतः आप सामान्य धर्म का अभाव नहीं कर सकते हैं। अबाधितपने से सामान्य प्रतिभासित होने पर उसको नहीं माना जाय, उसका जबरदस्ती अभाव किया जाय तो फिर विशेष का भी अभाव मानना पड़ेगा? क्योंकि अबाधित प्रत्यय को छोड़कर दूसरा कोई ऐसा प्रमाण नहीं है कि जो विशेष को सिद्ध कर सके। अर्थात् विशेष भी अबाधित प्रतीति से ही सिद्ध होता है, सामान्य और विशेष दोनों की व्यवस्था निर्बाध प्रमाण पर ही निर्भर है। 6. बाधा रहित ऐसा जो प्रमाण है उसके विषय हुए बिना ही यदि विशेष या किसी तत्त्व का सद्भाव स्वीकार किया जायेगा तो फिर अबाधित ज्ञान से किसी भी वस्तु की व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अनुगत
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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