SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 191 4/3 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः नीलस्वभावोर्थः, सामान्यविशेषाकारोल्लेख्यनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरश्चाखिलो बाह्याध्यात्मिकप्रमेयोर्थः। 3. तस्मात्सामान्यविशेषात्मेति। न केवलमतो हेतोः स तदात्मा, अपि तु पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनाऽर्थक्रियोपपत्तेश्च। 'सामान्यविशेषात्मा तदर्थः' इत्यभिसम्बन्धः। कतिप्रकारकं सामान्यमित्याह सामान्यं द्वेधा॥3॥ 2. पदार्थों में सादृश्य को बतलाने वाला अनुवृत्त प्रत्यय है। जैसे यह गौ है, यह भी गौ है इत्यादि अनेक पदार्थों में समानता का ज्ञान होने से तथा पृथक्पना बतलाने वाला व्यावृत्त प्रत्यय अर्थात् यह गौ श्याम है धवल नहीं है इत्यादि व्यावृत्त प्रतिभास होने से पदार्थों में सामान्य और विशेषात्मकपना सिद्ध होता है, जो जिस प्रकार से प्रतिभासित होता है वह उसी रूप का देखा जाता है, जैसे नीलाकार से प्रतिभासित होने के कारण नील स्वभाव वाला पदार्थ है ऐसा माना जाता है। 3. सामान्य आकार का उल्लेखी अनुवृत्त प्रत्यय और विशेष आकार का उल्लेखी व्यावृत्त प्रत्यय सम्पूर्ण बाह्य-अचेतन पदार्थ एवं अभ्यन्तर-चेतना पदार्थों में प्रतीत होता ही है। अतः वे चेतन अचेतन पदार्थ सामान्य विशेषात्मक सिद्ध होते हैं। पदार्थों को सामान्य विशेषात्मक सिद्ध करने के लिये अकेला अनुवृत्त व्यावृत्त प्रत्यय ही नहीं है, अपितु सूत्रोक्त पूर्व आकार का त्यागरूप व्यय, उत्तर आकार की प्राप्तिरूप उत्पाद और दोनों अवस्थाओं में अन्वय रूप में रहने वाला ध्रौव्य पदार्थों में पाया जाता है, इस तरह की परिणाम स्वरूप अर्थक्रिया का सद्भाव भी उनमें पाया जाता है। इन हेतुओं से पदार्थों की सामान्य विशेषात्मकता सिद्ध होती है। अब पदार्थों का सामान्य धर्म कितने प्रकार का है वह बतलाते हैंसामान्यं द्वेधा ॥३॥
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy