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___140. असिद्धश्चायं हेतुः; पौराणिका हि ब्रह्मकर्तृकत्वं स्मरन्ति "वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः" इति। "प्रतिमन्वन्तरं चैव श्रुतिरन्या विधीयते" इति चाभिधानात्। “यो वेदांश्च प्रहिणोति" इत्यादिवेदवाक्येभ्यश्च तत्कर्ता स्मर्यते।
141. ननु शब्दार्थयोः सम्बन्धासिद्धेः कथमाप्तप्रणीतोपि शब्दोऽर्थे ज्ञानं कुर्याद्यत आप्तवचननिबन्धनमित्यादि वचः शोमेतेत्याशङ्कापनोदार्थम् 'सहजयोग्यता' इत्याद्याह
सहजयोग्यतासङ्केतवशाद्धि शब्दादयः वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः moon
140. यह अस्मर्यमाण कर्तृत्व हेतु असिद्ध भी है, अब इसी दोष को विस्तार से बताते हैं। जैसे- आपके यहाँ पौराणिक लोग ब्रह्मा को वेद का कर्ता मानते हैं, 'वक्त्रेभ्योवेदास्तस्य विस्तृताः' उस ब्रह्मा जी के मुख से वेदशास्त्र निकलता है ऐसा आगमवाक्य है। प्रतिमन्वन्तर (अर्थात् एक मनु के बाद दूसरे मनु की उत्पत्ति होने में जो बीच में काल होता है उस अन्तराल को प्रतिमन्वन्तर कहते हैं) प्रमाण वर्ण व्यतीत होने पर अन्य अन्य श्रुतियों का निर्माण होता है, इत्यादि तथा जो वेदों का कर्ता है वह प्रसन्न हो इत्यादि वेद वाक्यों से वेदकर्ता का स्मरण है ऐसा निश्चित होता है।
141. अब यहाँ बौद्ध शंका करते हैं कि- जैन ने शब्द को अनित्य सिद्ध करके आप्त पुरुष के शब्द द्वारा होने वाले पदार्थ के ज्ञान को आगम प्रमाण बताया। किन्तु शब्द और अर्थ का कोई भी सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता, फिर आप्त का कहा हुआ वचन पदार्थ का ज्ञान किस प्रकार करा सकता है जिससे आप्तवचनादि निबन्धन....इत्यादि आगम प्रमाण का लक्षण घटित हो सके?
इस शंका का समाधान आचार्य अग्रिम सूत्र द्वारा करते हैंसहजयोग्यतासंकेतवशाद्धि शब्दादयः वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः 100॥
सूत्रार्थ- शब्द वर्ण वाक्यादि में ऐसी सहज योग्यता है जिस
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 181