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सति हि कर्तरि स्मरणस्मरणं वा स्यान्नासति खरविषाणवत्। अथाऽकर्तृकत्वमेवात्र विवक्षितम्: तर्हि स्मर्यमाणग्रहणं व्यर्थम्, जीर्णकूपप्रासादादिभिय॑भिचारश्च। अथ सम्प्रदायाऽविच्छेदे सत्यऽस्मर्यमाणकर्तृकत्वं हेतुः; तथाप्यनेकान्तः।
139. सन्ति हि प्रयोजनाभवादस्मर्यमाणकर्तृकाणि 'वटे वटे वैश्रवणः' इत्याद्यनेकपदवाक्यान्यविच्छिन्नसम्प्रदायानि। न च तेषामपौरुषेयत्वं भवतापीष्यते। पुराने कूप महल आदि के साथ हेतु व्यभिचरित होता है, क्योंकि ये पदार्थ कर्ता द्वारा रचित होते हुए भी अस्मर्यमाण कर्तृत्वरूप हैं। अर्थात् कर्ता के स्मरण से रहित हैं। यदि कहा जाय कि जिसमें सम्प्रदाय के विच्छेद से रहित अस्मर्यमाणकर्तृत्व है उसको हेतु बनाते हैं तो यह हेतु भी अनेकान्तिक दोष युक्त है।
आचार्य प्रभाचन्द्र यहाँ सार रूप में यह कहना चाहते हैं कि जिस वस्तु में शुरू से अभी तक परम्परा से कर्ता का स्मरण न हो उसे अस्मर्यमाण कर्तृत्व कहते हैं, वेद इसी प्रकार का है उसके कर्ता का परम्परा से अभी तक किसी को भी स्मरण नहीं है अतः इस अस्मर्यमाणकर्तृत्व हेतु द्वारा अपौरुषेयत्वसाध्य को सिद्ध किया जाता है, जीर्ण कूप आदि पदार्थ भी अस्मर्यमाणकर्तृत्वरूप है किन्तु सम्प्रदाय अविच्छेद रूप अस्मर्यमाणकर्तृत्व नहीं है क्योंकि जीर्णकूपादि का कर्ता वर्तमान काल में भले ही अस्मर्यमाण हो किन्तु पहले अतीतकाल में तो स्मर्यमाण ही था, अतः जीर्णकूप आदि का अस्मर्यमाणकर्तृत्व विभिन्न जाति का है ऐसा परवादी मीमांसकादि का कहना है अत: यह कथन भी अनेकान्त दोष युक्त है, अब इसी को वे आगे बता रहे हैं।
139. वट वट में वैश्रवण रहता है, पर्वत पर्वत पर ईश्वर वसता है, इत्यादि पद एवं वाक्य प्रयोजन नहीं होने से अविच्छिन्न सम्प्रदाय से अस्मर्यमाण कर्त्तारूप हैं किन्तु उन पद एवं वाक्यों को आप भी अपौरुषेय नहीं मानते हैं, इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जो अस्मर्यमाणकर्तृत्वरूप है वह अपौरुषेय होता है ऐसा कहना व्यभिचरित होता है।
180:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः