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तत्राद्यपक्षे किमिदं कर्तुरस्मरणं नाम-कर्तस्मरणाभावः, अस्मर्यमाणकर्तृकत्वं वा?
137. प्रथमपक्षे व्यधिकरणाऽसिद्धो हेतुः, कर्तृस्मरणाभावो ह्यात्मन्यपौरुषेयत्वं वेदे वर्त्तते इति।
138. द्वितीयपक्षे तु दृष्टान्ताभावः; नित्यं हि वस्तु न स्मर्यमाणकर्तृक नाप्यस्मर्यमाणकर्तृक प्रतिपन्नम्, किन्त्वकर्तृकमेव। हेतुश्च व्यर्थविशेषणः; या वेदाध्ययन शब्द वाच्यत्व रूप अथवा कालत्वरूप? प्रथम पक्ष में प्रश्न होता है कि कर्ता का अस्मरण- इस पद का क्या अर्थ है? कर्ता के स्मरण का अभाव रूप अर्थ है या अस्मर्यमाणकर्तृत्वरूप अर्थ है? (स्मृति में आये हुए कर्ता का निषेध करना रूप अर्थ है?)
137. प्रथम विकल्प- मानते हैं तो व्यधिकरण असिद्धि नामक हेत्वाभास बनता है। साध्य और हेतु का व्यधिकरण विभिन्न होना व्यधिकरण असिद्ध हेत्वाभास कहलाता है, यहाँ पर कर्ता के स्मरण का अभावरूप हेतु है सो यह स्मरण का अभाव आत्मा रूप अधिकरण में है और अपौरुषेयरूप साध्य वेद अधिकरण में है।
कहने का तात्पर्य यह है कि स्मरणाभाव रूप हेतु हमारे आत्मा में है और अपौरुषेयत्व को सिद्ध करना है वह साध्य वेद में है। अत: व्यधिकरण असिद्ध हेत्वाभास होता है।
138. द्वितीय विकल्प-अस्मर्यमाण कर्तृत्वरूप हेतु पद का अर्थ करते हैं तो दृष्टान्त का अभाव होगा, जो वस्तु नित्य होती है वह स्मर्यमाण कर्तृत्वरूप भी नहीं है और अस्मर्यमाणकर्तृत्वरूप भी नहीं है वह तो अकर्तृत्व रूप ही है। क्योंकि नित्य वस्तु का कर्ता ही नहीं होता अतः उसके कर्ता का स्मरण है या नहीं इत्यादि कथन गलत ठहरता है। हेतु का विशेषण भी व्यर्थ होता है क्योंकि कर्ता के होने पर ही स्मरण और अस्मरण सम्बन्धी प्रश्न होते हैं, कर्ता के अभाव में तो हो नहीं सकते, जैसे खरविषाण का स्मरण या अस्मरण कुछ भी नहीं होता। जैसे कहा जाय कि वेद को अपौरुषेय सिद्ध करने में कर्तृत्व को ही हेतु बनाया है तो फिर उसका अस्मर्यमाणत्व विशेषण व्यर्थ ठहरेगा? तथा
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 179