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प्रमाणं प्रत्यक्षम्, अनुमानम्, अर्थापत्त्यादि वा स्यात्? न तावत्प्रत्यक्षम्; तस्य शब्दस्वरूपमात्रग्रहणे चरितार्थत्वेन पौरुषेयत्वापौरुषेयत्वधर्मग्राहकत्वाभावात्। अनादिसत्त्वस्वरूपं चापौरुषेयत्वं कथमक्षप्रभवप्रत्यक्षपरिच्छेद्यम्? अक्षाणां प्रतिनियतरूपादिविषयतया अनादिकालसम्बन्धाऽभावतस्तत्सम्बन्धसत्त्वेनाप्यसम्बन्धात्। सम्बन्धे वा तद्वदऽनागतकालसम्बद्धधर्मादिस्वरूपेणापि सम्बन्धसम्भवान्न धर्मज्ञप्रतिषेधः स्यात्।
___136. नाप्यनुमानं तत्प्रसाधकम्; तद्धि कऽस्मरणहेतुप्रभवम्, वेदाध्ययनशब्दवाच्यत्वलिङ्गजनितं वा स्यात्, कालत्वसाधनसमुत्थं वा?
पौरुषेय है या अपौरुषेय है इत्यादि रूप शब्द के धर्म को श्रावण प्रत्यक्ष ज्ञान जान नहीं सकता। तथा अपौरुषेय तो अनादि काल से सत्ता को ग्रहण किया हुआ रहता है। इन्द्रिय जन्य प्रत्यक्ष उसको कैसे जान सकता है? इंद्रियाँ तो अपने अपने प्रतिनियत रूप शब्द आदि विषयों को ग्रहण करती हैं, इन्द्रियों का अनादिकाल से कोई सम्बन्ध नहीं है अतः इन्द्रियाँ अनादि अपौरुषेय शब्द के सत्ता के साथ सम्बन्ध को स्थापित नहीं कर सकती।
अनादि कालीन पदार्थ से यदि इन्द्रियाँ सम्बन्ध को कर सकती हैं तो उसके समान अनागत काल सम्बन्धी धर्म-अधर्म के साथ भी सम्बन्ध स्थापित कर सकेगी? फिर तो मीमांसक आत्मा के धर्मज्ञ बनने का निषेध नहीं कर सकेंगे।
अर्थात् आपका यह कहना है कि कोई भी पुरुष चाहे वह महायोगी भी क्यों न हो किन्तु धर्म-अधर्म रूप अदृष्ट को प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। अतः आपकी यह बात खण्डित होगी, क्योंकि यहाँ इन्द्रिय द्वारा धर्म आदि का ज्ञान होना स्वीकार कर रहे हैं? अतः प्रत्यक्ष प्रमाण वेद के अपौरुषेयत्व को सिद्ध नहीं कर सकता।
136. अनुमान प्रमाण भी वेद के अपौरुषेयत्व को सिद्ध नहीं कर सकता, आप अनुमान द्वारा अपौरुषेयत्व को सिद्ध करना चाहते हैं तो उस अनुमान में कौन सा हेतु प्रयुक्त करेंगे? कर्त्ता का अस्मरण रूप
178:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः