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चागमप्रमाणव्यपदेशाभावः शब्दो हि प्रमाणकारणकार्यत्वादुपचारत एव प्रमाणव्यपदेशमर्हति।
आप्त द्वारा कथित शब्दों से पदार्थों का जो ज्ञान होता है वह आगम प्रमाण है। अन्यापोह ज्ञान आदिक आगम प्रमाण नहीं कहलाते । आप्त के वचन को जो आगम प्रमाण माना वह कारण में कार्य का उपचार करके माना है, अर्थात् वचन सुनकर ज्ञान होता है अतः वचन को भी आगम प्रमाण कह देते हैं, किन्तु यह उपचार मात्र है वास्तविक तो ज्ञान रूप ही आगम प्रमाण है।
यहाँ आचार्य के कथन का अभिप्राय यह है कि आप्त के वचन (सर्वज्ञ के वचन) आदि के निमित्त से जो पदार्थों का बोध होता है वह आगम प्रमाण कहलाता है, इस प्रकार आगम प्रमाण का लक्षण है। यदि 'पदार्थों के ज्ञान को आगम प्रमाण कहते हैं'- इतना मात्र लक्षण होता तो प्रत्यक्षादि प्रमाणों में अतिव्याप्ति होती, क्योंकि पदार्थों का ज्ञान तो प्रत्यक्षादि से भी होता है अतः वचनों के निमित्त से होने वाला ज्ञान आगम प्रमाण है ऐसा कहा है।
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" वचन निबंन्धनमर्थज्ञानमागमः" इतना ही आगम प्रमाण का लक्षण करते तो रथ्यापुरुष के वचन, उन्मत्त, सुप्त, ठग पुरुष के वचन भी आगम प्रमाण के निमित्त बन जाते अतः आप्त" यह शब्द आया है उसका मतलब है प्रयोजनभूत पदार्थ, अथवा जिससे तात्पर्य निकले उसे अर्थ कहते हैं तथा बौद्ध शब्द के द्वारा अर्थ का ज्ञान न होकर सिर्फ अन्य वस्तु का होना मानते हैं उस मान्यता का अर्थ पद से खण्डन हो जाता है, अर्थात् शब्द वास्तविक पदार्थ के प्रतिपादक है न कि अन्यापोह
के ।
शब्द और अर्थ में ऐसा ही स्वभाविक वाचक - वाच्य सम्बन्ध है कि घट शब्द द्वारा घट पदार्थ कथन में अवश्य आ जाता है। घट पदार्थ में वाच्य शक्ति और शब्द में वाचक शक्ति हुआ करती है। इस प्रकार आप्त पुरुषों द्वारा कहे हुए वचनों को सुनकर पदार्थ का जो ज्ञान होता है वह आगम प्रमाण है ऐसा निश्चय होता है।
176 :: प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः