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________________ 3/99 आगमप्रमाणविमर्शः अथेदानीमवसरप्राप्तस्यागमप्रमाणस्य कारणस्वरूपे प्ररूपयन्नाप्तेत्याद्याह आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः ॥99॥ 133. आप्तेन प्रणीतं वचनमाप्तवचनात्। आदिशब्देन हस्तसंज्ञादिपरिग्रहः। तन्निबन्धनं यस्य तत्तथोक्तम्। अनेनाक्षरश्रुतमनक्षरश्रुतं च सङ्गहीतं भवति। अर्थज्ञानमित्यनेन चान्यापोहज्ञानस्य शब्दसन्दर्भस्य आगम प्रमाण विमर्श जैनन्याय की परम्परा में आगम एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। परोक्ष प्रमाण के भेदों में यह पांचवां तथा अन्तिम प्रमाण माना गया है। आचार्य आगम प्रमाण का वर्णन करते हुए उसका कारण तथा स्वरूप बतलाते आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः ॥99॥ सूत्रार्थ- आप्त के वचनादि के निमित्त से होने वाले पदार्थों के ज्ञान को आगम प्रमाण कहते हैं। 133. आप्त द्वारा कथित वचन को आप्त वचन कहते हैं, आदि शब्द से हस्त का इशारा आदि का ग्रहण होता है, उन आप्त वचनादि का जिसमें निमित्त है उसे आप्त वचन निबन्धन कहते हैं, इस प्रकार का लक्षण करने से अक्षरात्मक श्रुत और अनक्षरात्मक श्रुत दोनों का ग्रहण होता है। सूत्र में "अर्थज्ञानं" ऐसा पद आया है उससे बौद्ध के अन्यापोह ज्ञान का खण्डन होता है तथा शब्द सन्दर्भ ही सब कुछ है, शब्द से पृथक कोई पदार्थ नहीं है ऐसा शब्दाद्वैतवादी का खंडन हो जाता है। प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 175
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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