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________________ 3/62-63 निष्पन्नस्याप्यनिष्पन्न किञ्चिद्रूपमस्ति तत्करणात्तत्तत्कारणं कल्प्यते, तत्ततो यद्यभिन्नम्। तदेव तत्तस्य च न करणमित्युक्तम्। भिन्नं चेत् तदेव तेन क्रियते नारिष्टादिकमित्यायातम्। तत्सम्बन्धिनस्तस्य करणात्तदपि कृतमिति चेत्; भिन्नयोः कार्यकारणभावान्नान्यः सम्बन्धः, स्वयं सौगतैस्तथाऽभ्युपगमात्। तत्र चारिष्टादिना तत्क्रियेत, तेन वारिष्टादिकम्? प्रथमपक्षेऽरिष्टादेरेव तन्नि- ष्पत्तेर्मरणादिकमकिञ्चित्करमेव क्वचिदप्यनुपयोगात्। तेनारिष्टादिकरणे पूर्वनिष्पन्नस्य पश्चादुपजायमानेन तेन किं क्रियत इत्युक्तम्। अथाऽनिष्पन्न किञ्चिदस्ति; तत्रापि पूर्ववच्चर्चानवस्था च। 115. ननु यद्यत्र कार्यकारणभावो न स्यात्कथं तर्हि एकदर्शनादन्यानुमानमिति चेत् ; 'अविनाभावात्' इति ब्रूमः। तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्धेप्यविनाभावादेव गमकत्वम्। तदभावे वक्तृत्वतत्पुत्रत्वादेस्तादा किया जाता है, अरिष्ट द्वारा अनिष्पन्न स्वरूप को किया जाता है या अनिष्पन्न स्वरूप द्वारा अरिष्ट को किया जाता है? प्रथम पक्ष मानें तो अरिष्ट से अनिष्पन्न स्वरूप बन जाने से मरणादिक अकिंचित्कर ठहरते हैं, क्योंकि किसी कार्य में भी वे उपयोगी नहीं हैं। द्वितीय पक्ष अनिष्पन्न स्वरूप द्वारा अरिष्ट को किया जाता है ऐसा माने तो अरिष्ट पहले से ही निर्मित है अतः पीछे से उत्पन्न होने वाले अनिष्पन्न स्वरूप द्वारा उसको क्या करना शेष है? कुछ भी नहीं, किये हुए को पुनः पुनः करना व्यर्थ है ऐसा पहले ही निर्णय हो चुका यदि कहा जाय कि अरिष्ट पहले से निर्मित रहते हुए भी उसका कुछ स्वरूप अनिष्पन्न रहता है और उसको किया जाता है तो यह वही पहले की चर्चा है इसमें तो अनवस्था दोष आना स्पष्ट ही है। 115. बौद्ध- अरिष्ट और भावी मरण में यदि कार्यकारण भाव न माने तो उनमें से एक को देखने से दूसरे का अनुमान किस प्रकार हो जाता है? 150:: प्रमेयकमलमार्तण्डसार:
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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