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___ 114. अथ पूर्वमरिष्टादिकं स्वकाले पश्चाद्भाविमरणादिक स्वकालनियतं भवेत्; तर्हि निष्पन्नस्य निराकाङ्क्षस्यास्य पश्चादुपजायमानेन मरणादिना कथं करणं कृतस्य करणायोगात्? अन्यथा न क्वचित्कार्ये कस्यचित्कारणस्य कदाचिदुपरमः स्यात्, पुनःपुनस्तस्यैव करणात्। अथ
114. स्वकाल में होने वाले अरिष्टादि का पहले सत्त्व या भावी मरणादिक तो पीछे स्वकाल में होते हैं ऐसा दूसरा विकल्प स्वीकार करे तो जो निष्पन्न हो चुका है एवं किसी की अपेक्षा नहीं करता है ऐसे इस अरिष्ट को पश्चात् उत्पन्न होने वाले मरणादि के द्वारा किस प्रकार किया जाय? किये हुए को तो किया नहीं जाता, अन्यथा किसी भी कार्य में किसी भी कारण का कभी भी उपरम नहीं होगा अर्थात् कारण हमेशा उस एक कार्य को करता ही जायेगा, क्योंकि पुनः पुनः उसी उसी को करना मान लिया।
बौद्ध- निष्पन्न वस्तु का स्वरूप भी कुछ अनिष्पन्न रहता है उसको पुनः किया जाता है अतः वह उसका कारण माना जाता है, अर्थात् अरिष्ट आदि निष्पन्न होते हुए भी उसका कुछ रूप अनिष्पन्न रहता है और उसको भावी मरण करता है?
जैन- निष्पन्न अरिष्ट का जो स्वरूप अनिष्पन्न है वह यदि अरिष्ट से अभिन्न है तो निष्पन्न अरिष्टरूप ही है और उसको तो करना नहीं है। यदि अनिष्पन्न स्वरूप अरिष्ट से भिन्न है तो उसी को मरणादि ने किया अरिष्ट को नहीं किया ऐसा अर्थ हुआ।
बौद्ध- अरिष्ट का अनिष्पन्न स्वरूप अरिष्ट से सम्बद्ध रहता है अतः उसको करने से अरिष्ट को भी किया ऐसा माना जाता है?
जैन- अरिष्ट और उसका अनिष्पन्न स्वरूप ये दोनों भिन्न होने से इनमें कार्यकारण भाव से अन्य कोई सम्बन्ध बन नहीं सकता, स्वयं बौद्ध ने ऐसा स्वीकार किया है।
अब प्रश्न होता है कि यदि अरिष्ट और उसके अनिष्पन्न स्वरूप में कार्यकारणभाव सम्बन्ध है तो उनमें से किसके द्वारा किसको
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 149