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मरणादिनैव क्रियते न असत: खरविषाणवत्कर्तृत्वायोगात् । कार्यकालेऽसत्त्वेपि स्वकाले सत्त्वाददोषश्चेत् ननु कि भाविनो मरणादेः स्वकाले पूर्व सत्त्वम्, अरिष्टादेव भाविनः पूर्व सत्त्वे ततः पश्चादरिष्टादिकमुपजायमानं पाश्चात्य न पूर्वम् । इत्ययुक्तमुक्तम्- 'पूर्वमसन्तोपि मरणादयोऽरिष्टादिकार्यकारिणः ' इति। अथान्यभाविमरणाद्यपेक्षयारिष्टादिकं पूर्वमुच्यते; ननु तदपि सत् स्वकाले यदि ततः प्रागेव स्यात् तर्हि पाश्चात्यमरिष्टादिकं कथं ततः पूर्वमुच्यते ? अन्यभाविमरणाद्यपेक्षया चंदनवस्था ।
रखते हैं, क्योंकि “जो स्वयं उत्पन्न हो चुका है उसको अन्य की अपेक्षा नहीं होती" ऐसा न्याय है।
बौद्ध- अरिष्टादि की उत्पत्ति भावी मरणादि द्वारा ही की जाती
है?
जैन- नहीं, खर विषाण के समान जो असत् है उसमें कार्य के कर्तृत्व का अयोग है।
बौद्ध- कार्य के काल में भले असत्व हो किन्तु स्वकाल में सत्व होने से कोई दोष नहीं आता, अर्थात् मरणादि का भावी काल में सत्व होता ही है अतः वह अरिष्टादि का कारण हो सकता है?
जैन- स्वकाल में होने वाले भावी मरणादि का पहले सत्व था या अरिष्टादि का पहले सत्त्व था? भावी मरण का पहले सत्त्व था बाद में उससे अरिष्टादि उत्पन्न हुए ऐसा कहो तो अरिष्टादि को पाश्चात्यपना ठहरा न कि पूर्वपना? इस तरह तो पूर्वोक्त कथन अयुक्त सिद्ध होता है कि "पूर्व में असत् होकर भी मरणादिक अरिष्टादि को करते हैं। "
बौद्ध अन्य के भावी मरणादि की अपेक्षा से अरिष्ट को पहले हुआ ऐसा कहा जाता है।
जैन- वह अन्य का भावी मरण भी स्वकाल में पहले सत्त्व रूप था तो अरिष्टादि को पाश्चात्यपना ही ठहरता है, फिर उसको मरण के पहले हुआ ऐसा किस प्रकार कह सकते हैं? अन्य के भावी मरण की अपेक्षा से कहो तो अनवस्था दोष स्पष्ट दिखायी देता है।
148 :: प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः