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________________ 3/61 107. आस्वाद्यमानाद्धि रसार्वजनिका सामग्रधनुमीयते पश्चातदनुमानेन रूपानुमानम्। सजातीयं हि रूपक्षणान्तरं जनयनन्नेव प्राक्तनो रूपक्षणोविजातीयरसादिक्षणान्तरोत्पत्ती प्रभुर्भवेन्नान्यथा । 108. तथा चैकसामग्रयनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किञ्चित्कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबन्धकारणान्तरावैकल्ये भवतः । अथ पूर्वोत्तरचारिणोः प्रतिपादितहेतुभ्यो र्थान्तरत्वसमर्थनार्थमाहन च पूर्वोत्तरकालवर्त्तिनोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिव कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः ॥|61|| 4 107. बौद्धों का मन्तव्य है कि आस्वादन किये गये रस से उस रस को उत्पन्न करने वाली सामग्री का अनुमान लग जाता है, पश्चात् उस अनुमान से रूप का अनुमान होता है। इसका कारण यह है कि पहले का रूपक्षण को उत्पन्न करके ही विजातीय रसादि क्षणान्तर की उत्पत्ति कराने में समर्थ सहायक हो सकता है अन्यथा नहीं । इस प्रकार एक सामग्रीभूत अनुमान द्वारा रूपानुमान का प्रादुर्भाव मानने वाले बौद्धों का जहाँ पर सामर्थ्य की रुकावट और अन्य कारणों की अपूर्णता न हो उस कारण को कारण हेतु रूप से स्वीकार करना इष्ट ही है। अतः बौद्ध के मान्य तीन हेतुओं में (कार्य-स्वभाव और अनुपलब्धि) कारणरूप हेतु का समावेश नहीं होने से उनके हेतु की संख्या गलत सिद्ध होती है। पूर्वचर और उत्तरचर हेतु भी उक्त हेतुओं से पृथकरूप सिद्ध होते हैं ऐसा आगे के सूत्र में कह रहे हैं न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः ॥16॥ सूत्रार्थ पूर्वचर हेतु और उत्तर हेतु तादात्म्य तथा तदुत्पत्ति रूप तो हो नहीं सकते क्योंकि इनमें काल का व्यवधान पड़ता है अत: इन हेतुओं का स्वभाव हेतु या कार्य हेतु में अन्तर्भाव करना आवश्यक है। 14. पंडित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य जी ने सूत्र का यही पाठ स्वीकार किया है। प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार :: 143
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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