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105. ननु प्रसिद्धपि कार्यकारणभावे कार्यमेव कारणस्य गमक तस्यैव तेनाविनाभावात्, न पुनः कारणं कार्यस्य तदभावात्;
___106. इत्यसङ्गतम्; कार्याविनाभावितयाऽवधारितस्यानुमानकालप्राप्तस्य छत्रादेर्विशिष्टकारणस्य छायादिकार्यानुमापकत्वेन सुप्रसिद्धत्वात्। न ह्यनुकूलमात्रमन्त्यक्षणप्राप्तं वा कारणं लिङ्गमुच्यते, येन प्रतिबन्धवैकल्यसम्भवाव्यभिचारि स्यात्, द्वितीयक्षणे कार्यस्य प्रत्यक्षीकरणादनुमानानर्थक्यं वा। तदेव समर्थयमानो रसादेकसामग्रयनुमानेनेत्याद्याहरसादेकसामग्रयनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किञ्चित्कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबन्धकारणान्तरावैकल्ये ॥60॥ सम्बन्ध को भले प्रकार से सिद्ध करने वाले हैं।
105. बौद्ध- कार्यकारण भाव सिद्ध हो जाय तो भी केवल कार्य ही कारण का गमक बन सकता है क्योंकि कार्य कारण के साथ अविनाभावी है, किन्तु कारण, कार्य के साथ अविनाभावी नहीं होने से उसका गमक नहीं बन सकता?
___106. जैन- यह असंगत है, जिस कारण का कार्याविनाभाव सुनिश्चित है ऐसे अनुमानकाल में उपस्थित हुए छत्रादि विशिष्ट कारण, छाया आदि रूप कार्य के अनुमापक हो रहे प्रसिद्ध ही है। हम जैन अनुकूलतारूप कारणमात्र को कारण हेतु नहीं मानते, न अंत्यक्षण प्राप्त करने को कारण हेतु मानते हैं जिससे कि अविनाभावित्व की विकलता संभावित रहने से व्यभिचार दोष आये। अथवा कारण के द्वितीय क्षण में अर्थात् उत्तरकाल में कार्य का साक्षात्कार हो जाने से कारणानुमान व्यर्थ हो जाने का प्रसंग आ सके। आगे इसी विषय को कहते हैं
रसादेकसामग्रयनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किंचित्कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबंधकारणांतरावैकल्ये 160॥
सूत्रार्थ- रस से सामग्री का अनुमान और उस अनुमान से रूप का अनुमान होना स्वीकार करने वाले बौद्धों को कारण हेतु को अवश्य मानना होगा जिसमें कि सामर्थ्य का प्रतिबन्ध नहीं हुआ हो एवं कारणान्तरों की अविकलता (पूर्णता) हो। 142:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः