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स हेतुर्द्वधा उपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् इति ॥57॥ योऽविनाभावलक्षणलक्षितो हेतुः प्राक्प्रतिपादितः स द्वेधाभवति उपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् ।
तत्रोपपलब्धिर्विधिसाधिकैवानुपलब्धिश्च प्रतिषेधसाधिकैवेत्य
नयोर्विषयनियममुपलब्धिरित्यादिना विघटयति
उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च ॥58 ॥
102. अविनाभावनिमित्तो हि साध्यसाधनयोर्गम्यगमकभावः । यथा चोपलब्धेर्विधौ साध्येऽविनाभावाद्गमकत्वं तथा प्रतिषेधेपि । अनुपलब्धेश्च यथा प्रतिषेधे ततो गमकत्वं तथा विधावपीत्यग्रे स्वयमेवाचार्यो वक्ष्यति ।
हैं
स हेतुर्द्वधा उपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् ॥57॥
सूत्रार्थ - उपलब्धि हेतु और अनुपलब्धि हेतु इस तरह हेतु के दो भेद हैं।
101. साध्य के साथ जिसका अविनाभाव है वह हेतु कहलाता है ऐसा पहले कहा है, उसके उपलब्धि हेतु और अनुपलब्धि हेतु इस तरह दो भेद हैं। उपलब्धि हेतु केवल विधि साधक ही है और अनुपलब्धि हेतु केवल प्रतिषेध साधक ही है ऐसा इन हेतुओं के विषय का नियम करने वाला सूत्र आगे कहते हैं
उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च ॥58 ॥
सूत्रार्थ - उपलब्धि हेतु भी विधि तथा प्रतिषेध ( अस्तित्व नास्तित्व या सद्भाव अभाव) का साधक है और अनुपलब्धि हेतु भी विधि तथा प्रतिषेध का साधक है।
102. साध्य - साधन में गम्यगमकभाव अविनाभाव के निमित्त से होता है। जिस प्रकार विधि रूप साध्य में अविनाभाव के कारण उक्त उपलब्धि हेतु उस प्रतिषेधरूप साध्य का गमक होता है। तथा जिस प्रकार प्रतिषेधरूप साध्य में अविनाभाव के निमित्त से अनुपलब्धि हेतु गमक
140 :: प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः