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________________ बालव्युत्पत्त्यर्थं तत्त्रयोपगमे शास्त्र एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ॥46॥ 3/46 96. बालव्युत्पत्त्यर्थं तन्त्रयोपगमे दृष्टान्तोपनयनिगमनत्रयाभ्युपगमे, शास्त्र एवासौ तदभ्युपगमः कर्तव्यः न वादेऽनुपयोगात्। न खलु वादकाले शिष्या व्युत्पाद्यन्ते व्युत्पन्नप्रज्ञानामेव वादेऽधिकारात् । 97. शास्त्रे चोदाहरणादौ व्युत्पन्नप्रज्ञा वादिनो वादकाले ये प्रतिवादिनो यथा प्रतिपद्यन्ते तान् तथैव प्रतिपादयितुं समर्था भवन्ति, प्रयोगपरिपाट्याः प्रतिपाद्यानुरोधतो जिनपतिमतानुसारिभिरभ्युपगमात्। बालव्युत्पत्यर्थं तत् त्रयोपगमे शास्त्र एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ॥6॥ सूत्रार्थ - जो न्यायशास्त्र में बाल (अव्युत्पन्न ) हैं उन्हें ज्ञान कराने के लिए उदाहरण, उपनय और निगमन का प्रयोग शास्त्र ( वीतराग कथा) में ही स्वीकार किया गया है। किन्तु वाद (विजिगीषु कथा) में उनका प्रयोग अनुपयोगी है। 96. बाल बुद्धिवाले पुरुषों के जानकारी के लिए दृष्टान्त आदि तीनों अंगों को स्वीकार किया जाता है किन्तु वह स्वीकृति शास्त्र के समय है बाद के समय नहीं, बाद में दृष्टान्तादि तो अनुपयोगी हैं। यदि दृष्टान्त, उपनय और निगमन को स्वीकार करना है तो वह शास्त्र चर्चा में स्वीकार करना चाहिए, वाद काल में नहीं। इसका कारण यह है कि वादकाल में शिष्यों को व्युत्पन्न नहीं बनाया जाता। वाद का अधिकार तो व्युत्पन्न बुद्धि वालों को ही है। 97. शास्त्र में उदाहरण आदि रहते हैं उसमें जो निपुण हो जाते हैं वे वादीगण वाद करते समय सामने वाले प्रतिवादी पुरुष जिस प्रकार से समझ सके उनको उसी प्रकार से समझाने में समर्थ हुआ करते हैं, उस समय अनुमान के जितने अंगों का जितने से प्रयोजन सधता है उतने अंग का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि प्रयोग परिपाटी तो प्रतिपाद्य के अनुसार होती है - ऐसा जिनेन्द्र मत का अनुसरण करने वालों ने स्वीकार किया है। 134 :: प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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