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________________ 3/45 समर्थन वा वरं हेतुरूपमनुमानावयवो वास्तु साध्ये तदुपयोगात् ।।45॥ समर्थनमेव वरं हेतुरूपमनुमानावयवो वास्तु साध्ये तस्योपयोगात्। समर्थनं हि नाम हेतोरसिद्धत्वादिदोषं निराकृत्य स्वसाध्येनाऽविनाभावसाधनम्। साध्यं प्रति हेतोर्गमकत्वे च तस्यैवोपयोगो नान्यस्येति। 95. ननु व्युत्पन्नप्रज्ञानां साध्यधर्मिणि हेतुसाध्ययोर्वचनादेवासंशयादर्थप्रतिपत्तेर्दृष्टान्तादिवचनमनर्थकमस्तु। बालानां त्वव्युत्पन्नप्रज्ञानां व्युत्पत्त्यर्थं तन्नानर्थकमित्याह तत्सम्बन्धी संशय दूर हो जाता है। इस प्रकार संशय रहित साध्य सिद्धि संभावित होते हुए भी दृष्टान्तादि को अनुमान का अंग माना जाय अथवा सपक्षसत्त्वादि हेतु का त्रिरूप माना जाय तो समर्थनं वा वरं हेतुरूपमनुमानावयवो वास्तु साध्ये तदुपयोगात् ॥45॥ सूत्रार्थ- हेतुरूप समर्थन को ही अनुमान का अवयव माना जाय, क्योंकि वह साध्य में उपयोगी है। हेतु के असिद्धादि दोष को दूर करके स्वसाध्य के साथ उसका अविनाभाव स्थापित करना समर्थन कहलाता है। अथवा विपक्ष में साकल्यपने से बाधक प्रमाण का प्रदर्शन करना समर्थन है। साध्य के प्रति हेतु का गमकपना होने में समर्थन ही उपयोगी है अन्य नहीं। 95. शंका- व्युत्पन्न प्रज्ञा वाले (साध्य साधन सम्बन्धी पूर्णज्ञान रखने वाले) पुरुषों को साध्यधर्मी में हेतु और साध्य के कथन से ही संशयरहित अर्थ की प्रतिपत्ति हो जाती है अतः उनको दृष्टान्तादि का कथन करना व्यर्थ है किन्तु अव्युत्पन्न प्रज्ञावाले पुरुषों को व्युत्पन्न कराने के लिए दृष्टान्तादिक व्यर्थ नहीं होते? उपर्युक्त शंका का समाधान करते हैं प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 133
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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