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87. " प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधत:" इत्यभिधानात्। ततो युक्तो गम्यमानस्याप्यस्य प्रयोगः, कथमन्यथा शास्त्रादावपि प्रतिज्ञाप्रयोगः स्यात् ? न हि शास्त्रे नियतकथायां प्रतिज्ञा नाभिधीयते - 'अग्निरत्र धूमात्, वृक्षोयं शिंशपात्वात्' इत्याद्यभिधानानां तत्रोपलम्भात् ।
88. परानुग्रहप्रवृत्तानां शास्वकाराणां प्रतिपाद्यावबोधनाधीनधियां शास्त्रादौ प्रतिज्ञाप्रयोगो युक्तिमानेवोपयोगित्वात्तस्येत्यभिधाने वादेपि सोऽस्तु तत्रापि तेषां तादृशत्वात्।
अमुमेवार्थं को वेत्यादिना परोपहसनव्याजेन समर्थयते
को प्रकृत अर्थ का बोध नहीं हो सकता। यह बात जरूर है कि जो व्यक्ति पक्ष प्रयोग के बिना भी प्रकृत अर्थ को जान सकते हैं उनके लिये तो पक्ष का प्रयोग नहीं करना अभीष्ट ही है।
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87. अनुमान प्रयोग की परिपाटी तो प्रतिपाद्य ( शिष्यादि) के अनुसार हुआ करती है। अतः गम्यमान ( ज्ञात) रहते हुए भी पक्ष का प्रयोग करना चाहिए। यदि ऐसी बात नहीं होती तो शास्त्र के प्रारम्भ में प्रतिज्ञा प्रयोग किस प्रकार होता? शास्त्र में नियत कथा के प्रसंग में प्रतिज्ञा अर्थात् पक्ष प्रयोग नहीं होता हो वह भी बात नहीं है “ अग्निरत्र धूमात्” वृक्षोयं शिंशपात्वात्- यहाँ पर धूम होने से अग्नि है, शिंशपा होने से यह वृक्ष है इत्यादि रूप से पक्ष के प्रयोग शास्त्र कथा में उपलब्ध होते हैं।
88. बौद्ध शास्त्रकार शिष्यों को बोध किस प्रकार हो? इस प्रकार के विचार में लगे रहते हैं अतः परानुग्रह करने वाले वे शास्त्रादि में यदि प्रतिज्ञा का प्रयोग करते हों तो युक्तिसंगत है, क्योंकि प्रतिपाद्य शिष्यादि के लिये पक्ष प्रयोग उपयोगी है।
जैन- तो यही बात वाद में है, वाद में भी वादीगण परानुग्रह पक्ष एवं प्रतिपाद्य को अवबोधन कराने में लगे रहते हैं अतः वाद काल में भी पक्ष का प्रयोग नितान्त आवश्यक है।
इसी अर्थ का उपहास करते हुए समर्थन करते हैं
प्रमेयकमलमार्त्तण्डसार:: 125