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________________ 3/35 वर्त्तते, तत्र सन्देहः-किमसौ साध्यधर्मोऽस्तित्वादिः सर्वज्ञे वर्त्तते सुखादौ वेति, तस्यापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम्। साध्यधर्मिणि साधनधर्मावबोधनाय पक्षधर्मोपसंहारवत् 1135॥ 86. तस्याऽवचनं साध्यसिद्धिप्रतिबन्धकत्वात्, प्रयोजनाभावाद्वा? तत्र प्रथमपक्षोऽयुक्तः; वादिना साध्याविनाभावनियमैकलक्षणेन हेतुना स्वपक्षसिद्धौ साधयितुं प्रस्तुतायां प्रतिज्ञाप्रयोगस्य तत्प्रतिबन्धकत्वाभावात् ततः प्रतिपक्षासिद्धेः। द्वितीयपक्षोप्ययुक्तः; तत्प्रयोगे प्रतिपाद्यप्रतिपत्तिविशेषस्य प्रयोजनस्य सद्भावात्, पक्षाऽप्रयोगे तु केषाञ्चिन्मन्दमतीनां प्रकृतार्थाप्रतिपत्तेः। ये तु तत्प्रयोगमन्तरेणापि प्रकृतार्थं प्रतिपद्यन्ते तान्प्रति तदप्रयोगोऽभीष्ट एव। आश्रय कि जहाँ पर साध्य धर्म रहता है, उसमें सन्देह होता है कि यह अस्तित्वादि साध्य धर्म सर्वज्ञ में रहता है या सुखादि में रहता है? इत्यादि, इस संशय को दूर करने के लिए ज्ञात होते हुए भी पक्ष को कहना जरूरी है। साध्यधर्मिणि साधनधर्मावबोधनाय पक्षधर्मोपसंहारवत् ॥35॥ सूत्रार्थ- जिस प्रकार साध्य धर्मी के साधन धर्म का अवबोध करने के लिए पक्षधर्म का उपसंहार किया जाता है। 86. बौद्ध पक्ष प्रयोग नहीं मानते तो उसके नहीं कहने में क्या कारण है? साध्य के सिद्धि में प्रतिबन्धक होने के कारण पक्ष को नहीं कहते या प्रयोजन नहीं होने के कारण पक्ष को नहीं कहते? प्रथम विकल्प अयुक्त है, जब वादी साध्य अविनाभावी नियम वाले हेतु द्वारा अपने पक्ष को सिद्ध करने में प्रस्तुत होता है तब किया गया पक्ष का प्रयोग साध्य की सिद्धि में प्रतिबन्धक हो नहीं सकता, क्योंकि उस पक्ष प्रयोग से तो प्रतिवादी का पक्ष असिद्ध हो जाता है (खंडित होता है)। द्वितीय विकल्प भी अयुक्त है, क्योंकि प्रतिपाद्य विषय की प्रतिपत्ति (जानकारी) होना रूप विशेष प्रयोजन पक्ष प्रयोग होने पर ही सधता है। यदि पक्ष का प्रयोग न किया जाए तो किन्हीं मन्दबुद्धि वालों 124:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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