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3/28-29 तद्विपर्ययादिति। न खलु सर्वज्ञखरविषाणयोः सदसत्तायां साध्यायां विकल्पादन्यतः सिद्धिरस्ति; तत्रेन्द्रियव्यापाराभावात्।
79. ननु चेन्द्रियप्रतिपन्न एवार्थे मनोविकल्पस्य प्रवृत्तिप्रतीते: कथं तत्रेन्द्रियव्यापाराभावे विकल्पस्यापि प्रवृत्तिः इत्यप्यपेशलम् धर्माधर्मादौ के लिए हेतु में सामर्थ्य हुआ करता है। जैसे- सर्वज्ञ है, क्योंकि सुनिश्चि तपने से उसमें बाधक प्रमाण का अभाव है, इस अनुमान में सत्ता को साध्य बनाया। खरविषाण नहीं है क्योंकि उसके मानने में प्रत्यक्ष प्रमाण बाधक है। इस अनुमान में असत्ता को साध्य बनाया। सर्वज्ञ की सत्ता रूप साध्य में और खरविषाण की असत्तारूप साध्य में विकल्प को छोड़कर अन्य कोई प्रमाण से सिद्धि नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञ और खरविषाण में इन्द्रिय प्रत्यक्ष का व्यापार ही नहीं है।
79. शंका- इन्द्रिय द्वारा ज्ञात हुए पदार्थ में ही मन के विकल्प की प्रवृत्ति होती है अतः इन्द्रिय व्यापार से रहित सर्वज्ञादि में विकल्प का प्रादुर्भाव किस प्रकार हो सकता है?
समाधान- यह कथन ठीक नहीं, इस तरह की मान्यता से तो धर्म अधर्म आदि में विकल्प की (मनोविचार का) प्रवृत्ति होना अवश्य होगा।
शंका- धर्माधर्मादि विषय में आगम की सामर्थ्य से विकल्प प्रादुर्भूत होते हैं अतः उनसे धर्मादि में प्रवृत्ति होना शक्य ही है?
समाधान- तो फिर यही बात प्रकृत धर्मी के विषय में है अर्थात् सर्वज्ञ आदि धर्मी में भी आगम की सामर्थ्य से उत्पन्न हुआ विकल्प प्रवृत्ति करता है कोई विशेषता नहीं।
कहने का तात्पर्य यह है कि जिसमें साध्य रहता है उसे पक्ष या धर्मी कहते हैं। यह पक्ष प्रत्यक्ष सिद्ध भी होता है और आगमादि से भी सिद्ध होता है। जो पदार्थ इन्द्रियगम्य नहीं है ऐसे पुण्य, पाप, आकाश, परमाणु आदि कोई तो आगमगम्य है और कोई अनुमानगम्य। इनमें धर्मी अर्थात् पक्ष विकल्प सिद्ध रहता है जिस पक्ष का अस्तित्व और नास्तित्व
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 119